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________________ श्री संवेगरंगशाला ४४६ को भी जोरदार वायु से टकराते दीपक ज्योति के समान अति चपल और विषय सुख को भी किंपाक फल समान, अन्त सविशेष दुःखदायी जानकर प्रतिबोध प्राप्त कर दीक्षा लेने की इच्छा वाले उस महात्मा ने अति स्नेही कंडरीक नामक अपने छोटे भाई को बुलाकर कहा कि-हे भाई ! तू यहाँ अब राज्य लक्ष्मी को भोग । संसार वास से विरागी मैं अब दीक्षा को स्वीकार करूंगा। कंडरीक ने कहा कि-महाभाग ! दुर्गति का मूल होने से यदि तू राज्य छोड़कर दीक्षा लेने की इच्छा करता तो मुझे भी राज्य से क्या प्रयोजन है ? सर्वथा राग मुक्त मैं गुरु के चरण कमल में अभी ही श्री भगवती दीक्षा को स्वीकार करूंगा। फिर राजा ने अनेक प्रकार की युक्तियों द्वारा बहुत समझाया, फिर भी अत्यन्त चंचलता से उसने आचार्य महाराज के पास दीक्षा ली। गुरुकुल वास में रहा पुर नगर आदि में विचरते और अनुचित्त आहार के कारण शरीर में बीमारी हो गई, उस समय चिरकाल के बाद पुंडरीकिणी नगरी पधारे, उस समय पुंडरीक राजा ने वैद्य के औषधानुसार उनकी सेवा की। इससे वह स्वस्थ शरीर वाला हुआ फिर भी रस स्वाद के लालच से दूसरे स्थान पर विहार करने का अनुत्साही बन गया। राजा ने उसे इस तरह से उत्साहित किया कि हे महाशय ! आप धन्य हो। कि जिस तप से कमजोर शरीर वाले होने पर भी वैरागी बने द्रव्य क्षेत्र आदि में निश्चय थोड़ा भी राग नहीं करते हैं। आप ही हमारे कुलरूपी आकाश में पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्र हो कि जिससे उत्तम चारित्र के प्रभा के विस्तार से विश्व उज्जवल होता है, अर्थात् विश्व निर्मल कीर्ति को प्राप्त करता है। हे महाभाग ! आपने ही अप्रतिबद्ध विहार का पालन किया है कि जिससे आप मेरी विनती से भी यहाँ पर नहीं रूकते हो। इस प्रकार उत्साह कारक वचनों से राजा ने इस तरह उत्तम रीत से समझाया कि जिससे शीतल विहारी भी कुंडरीक ने अन्य स्थान पर विहार किया, परन्तु भूमि शयन, सुलभ भोजन आदि से संयम में मग्नमन वाला शीलरूपी महाभार को उठाने में थका हुआ, मर्यादा रहित विषयों में महान् राग वाला वह गुरुकुल वास में से निकलकर राज्य के उपभोग के लिए पुनः अपनी नगरी में आया। उसके बाद राजा के उद्यान में वृक्ष की शाखा पर चारित्र के उपकरणों को लगा कर निर्लज्ज वह हरी वनस्पति से युक्त भूमि ऊपर बैठा। और उसे इस तरह बैठा हुआ सुनकर राजा वहाँ आया और संयम में स्थिर करने के लिए उसे वन्दन करके इस तरह कहने लगा किआप एक ही धन्य हो, कृतपुण्य हो, और जीवन के फल को प्राप्त कर रहे हो
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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