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________________ श्री संवेगरंगशाला वार के बने पिंजरे में क्रीड़ा करता है, भाले की अणी ऊपर शयन करता है, और afe को वस्त्र में बन्धन करता है । तथा वह मूढ़ अपने मस्तक से पर्वत को तोड़ता है, भयंकर अग्नि ज्वालाओं से आलिंगन करता है और जीने के लिये जहर को खाता है । और वह भूखे सिंह, क्रोधित सर्प के पास जाता है तथा बहुत मक्खी युक्त मद्य पुड़े पर प्रहार करता है । अथवा जिसको विषयों में गद्धि है, उसके मुख में जहर है, कन्धे पर अति तीक्ष्ण तलवार हैं, सामने ही खाई है, गोद में ही काला नाग और पास में ही यम स्थिर है उसके हृदय में ही प्रलय की अग्नि जल रही है तथा मूल में कलह छुपा है । अथवा निश्चय उसने मृत्यु को अपने वस्त्र की गांठ से बंधन कर रखा है, और वह असक्त शरीर वाला काँपती दीवार और आंगन वाले मकान में सोया है । अर्थात् मौत की तैयारी वाला है । और जो विषयों में गृद्धि करता है, वह तत्त्व की शूली के ऊपर बैठता है, जलते लाख घर में प्रवेश करता है और भाले की अणी पर नाचता है | अथवा ये सारी बातें कही हैं, दृष्टि विष सर्प आदि तो इस भव में ही नाश करने वाले हैं और धिक्कार पात्र विषय तो अनन्ता भवों तक दारूण दुःख को देने वाला है । अथवा वह दृष्टि विष सर्प आदि सब तो मन्त्र, तन्त्र या देव आदि के प्रयोग से स्तम्भित-वश करने पर इस भव में भी भयजनक नहीं बनते हैं और विषय तो अनेक भवों तक दुःखदायी होता है। जड़ पुरुष काम की पीड़ा के दुःख को उपशान्त के लिए विषय को भोगता है, परन्तु घी से जैसे अग्नि बढ़ती है, वैसे उस विषय से पीड़ा अति गाढ़ बढ़ती है । जो विषय में गृद्ध है वह शूरवीर होते हुए भी अबला के मुख को देखता है और जो उस विषय से विरागी होता है उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। मोह महाग्रह के वश हुआ विषयाधीन जीव अरति से युक्त है और धर्म राग से मुक्त होकर मन, वचन, काया को अविषय में भी जोड़ता है और विषयों के सामने युद्ध भूमि में जुड़ी हुई दुर्जन इन्द्रिय रूपी हाथियों के समूह, शत्रु रूप शब्द आदि विषयों को देखकर मन, वचन, काया से विलास करता है अर्थात् जो इन्द्रिय विषय को जीतने के लिये है वही उसी में फँस जाता है । विषयासक्ति का त्यागी और अपनी बुद्धि में उस प्रकार का निर्मल विवेक को धारण करने वाला भी पुरुष युवती वर्ग में सद्भाव, विश्वास, स्नेह और राग से परिचय करते अल्पकाल में ही तप, शील और व्रत का नाश करता 1 है । क्योंकि - जैसे-जैसे परिचय करने में आता है, वैसे-वैसे क्षण-क्षण में उसका राग बढ़ता जाता है, और थोड़ा राग भी बढ़ जाता है फिर उसे रोकने में जीव को सन्तोष नहीं होता है अर्थात् उसे रोकने में समर्थ नहीं होता है, और इस ४४७
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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