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________________ ४४६ श्री संवेगरंगशाला का स्थान है, अपकीर्ति का अवश्य कारण है, दुःख का एक परम कारण है और इस भव परभव का घातक है। विषयासक्त पुरुष का मन मार्ग भ्रष्ट होता है, बुद्धि नाश होती है, पराक्रम खत्म होता है, और गुरू का हितकर भी उपदेश को वह भूल जाता है। तीन लोक के भूषण रूप वह उत्तम जाति, वह कुल, और वह कीर्ति हो परन्तु यदि वह विषयासक्ति है तो वह बायें, दायें पैर से दूर फेंक देता है। श्री जैन मुख देखने में चतुर नेत्र वाला अर्थात ज्ञान चक्ष वाला हो, परन्तु वह तब तक दर्शनीय पदार्थों को देख सकता है कि जब तक विषयासक्ति रूप नेत्र रोग नहीं होता है । मन मन्दिर में धर्म का अभिप्राय आदर रूपी प्रदीप तब तक प्रकाशमय रहता है जब तक विषयासक्ति रूप वायु की आँधी नहीं आती है। सर्वज्ञ की वाणी रूपी जहाज वहाँ तक संसार समुद्र से तरने में समर्थ है कि जहाँ तक विषयासक्ति रूपी प्रतिकुल पवन चलता नहीं है । निर्मल विवेक रत्न वहाँ तक चमकता है अथवा प्रकाश करता है कि जब तक विषयासक्ति रूपी धूल ने उसे मलिन नहीं किया । जीव रूपी शंख में रहा हुआ शियल रूपी निर्मल जल तब तक शोभता है कि जब तक विषय का दुराग्रह रूपी अशुचि के संग से वह मलिन नहीं होता है। धर्म को करने में अनासक्त और विषय सेवन में आसक्त ऐसे अति कठोर जीव अपना अशरण रूप नहीं जानता है और अपने हित को नहीं करता है। विषय विद्वानों को जहर देता है, श्री जैनगम रूप अंकुर की सर्वथा अपमान करने वाला, शरीर के रुधिर को चूसने में मच्छर के समान और सैंकड़ों अनिष्टों को करने वाला होता है । अति चिरकाल तप किया हो, चारित्र का पालन किया हो और श्रुतज्ञान भी बहुत पढ़ा हो, फिर भी यदि विषय में बुद्धि है तो निश्चय वह सारा निष्फल है। अहो ! विषय रूपी प्रचंडलुटेरा जीव को सम्यग् ज्ञानरूपी मणियों से अति मूल्यवान और स्फूरायमान चारित्र रत्न से सुशोभित भण्डार को लूटता है। उस विषयाभिलाषा को धिक्कार हो ! कि जिससे वह महत्व, वह तेज; वह विज्ञान और वह गुण सर्व निश्चय ही एक क्षण में विनाश होते हैं। हा ! धिक्कार ! पूर्व में कभी नहीं मिला श्री जैन वचन रूपी उत्तम रसायण का पान करके भी विषय रूपी महा विष से व्याकुल होकर उसका वमन किया है। सदाचरण में अप्राण और पाप के आश्रव में सशक्त पापियों, अपनी आत्मा को विषय के कारण दुःखी करता जो विषयों की गृद्धि करता है वह पापी दृष्टि विष सर्प के पास खड़ा रहता है उससे मर जाता है । तलवार की तीक्ष्ण धार के ऊपर चलता है, तल
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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