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________________ श्री संवेगरंगशाला ४३७ वाली हो, और स्पष्ट चैतन्य वाला चतुर पुरुषों की आत्मा भी उसे पीने मात्र से सहसा अन्यथा परिणाम वाला होता है। अर्थात् समभाव छोड़कर रागी द्वेषी बनता है, विभाव दशा को प्राप्त करता है क्षध बुद्धि वाला और शून्य चेतना वाला बनता है। अतः वह स्पष्ट अनार्य पापी मद्य को कौन बुद्धिशाली पीयेगा । जैसे जल से दूसरे में अंकुर प्रगट होते हैं वैसे मद्य पीने से प्रत्येक समय में इस भव पर भव में दुःखों को देने वाले विविध दोष प्रगट होते हैं। तथा मद्यपान से राग की वृद्धि होती है, राग वृद्धि से काम की वृद्धि होती है और काम में अति आसक्त मनुष्य गम्यागम्य का भी विचार नहीं करता है। इस तरह यदि मद्य इस जन्म में ही समझदार मनुष्यों को विकल-पागल करता है तथा उसके साथ विष की भी सदृशता को धारण करता है। और हम क्या कहें ? अर्थात् मद्य और जहर दोनों समान मानों ! अथवा यदि मद्य अवश्य जन्मातर में भी विकलेन्द्रिय रूप बनता है तो एक ही जन्म में विकलेन्द्रिय रूप करने वाला विष को मद्य के साथ कैसे समानता दे सकते हैं ? विष से मद्य अधिक दुष्टकारक है। ऐसा विचार नहीं किया कि द्रव्यों का मिलन रूप होने से सज्जनों को मद्य पीने योग्य ही है, परन्तु इस विषय में सभी पेय अपेय की व्यवस्था विशिष्ट लोगकृत और शास्त्रकृत है सब द्रव्यों का एक रूप होने पर भी एक वस्तु पीने योग्य होती है परन्तु दूसरी वस्तु वैसे नहीं होती है । जैसे द्रव्य मिलाकर द्राक्षादि का पानी सर्वथा पीने योग्य कहा है, उसी तरह मिलाया हुआ समान परन्तु सड़े हुए पानी को पीना योग्य नहीं है। ऊपर कहा हुआ यह पेय और अपेय व्यवस्था लोककृत है और अब शास्त्रकृत कहते हैं। वह शास्त्र दो प्रकार का है, लौकिक तथा लोकोत्तरिक । उसमें प्रथम लौकिक शास्त्र कहता है कि-गुड़, आटा, और महुड़ा इस तरह तीन प्रकार की मदिरा होती है । वह जैसे एक पीने योग्य नहीं वैसे तीनों सुरा उत्तम ब्राह्मण को पीने योग्य नहीं है। क्योंकि जिसका शरीर गात ब्रह्ममद्य से एक बार लिप्त होता है, उसका ब्राह्मणपन दूर हो जाता है और शूद्रता आती है । स्त्री का घात करने वाला, पुरुष का घात करने वाला, कन्या का सेवन करने वाला, और मद्यपान करने वाला ये चारों तथा पाँचवाँ उसके साथ रहने वाला इन पांचों को पापी कहा है। ब्रह्म हत्या करने वाला, बारह वर्ष वन में व्रत का पालन करे, वह शुद्ध होता है, परन्तु गुरू पत्नी को सेवन करने वाला अथवा मदिरापान करने वाला ये दो तो मरे बिना शुद्ध नहीं होते हैं । मद्य से या मद्य की गन्ध से भी स्पर्श हुआ बर्तन को ब्राह्मण स्पर्श नहीं करे, फिर भी यदि स्पर्श हो जाए तो स्नान द्वारा शुद्ध हो। लोकोत्तर शास्त्र
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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