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________________ ४३६ श्री संवेगरंगशाला करने वाले श्री जिनेश्वर के वचन को भी शिथिल करते हैं अर्थात् कषाययुक्त आत्मा श्री जैन वचन का भी अनादर करता है । धन्य पुरुषों के कषाय अवश्य अत्यन्त फैले हुए भी गर्जना करते दूसरे का क्रोधरूपी वायु से टकराते बादल के समान बिखर जाता है। इससे भी अधिक धन्य पुरुषों के कषाय अवश्य कुलवान के काम विकार के समान अकार्य किए बिना ही सदा अन्तर में ही क्षय हो जाते हैं। और कई अति धन्य पुरुषों के कषाय तो निश्चय ही ग्रीष्म ऋतु के ताप से पसीने के जल बिन्दुओं के समान जहाँ उत्पन्न होते हैं वैसे ही नाश भी वहीं हो जाते हैं। कई धन्य पुरुषों के कषाय खुदती हुई सुरंग की धूल जैसे सुरंग में ही समा जाती है, वैसे दूसरे के मुख वचनरूपी कोदश के बड़े प्रहार से भी अन्तर में ही समा जाता है। कई धन्य पुरुषों के कषाय अवश्य दूसरे वचनरूपी पवन से प्रगट हुए उच्च शरद ऋतु के जल रहित बादल के समान असार फल, फल वाला (निष्फल) होता है। ईर्ष्या के वश कई धन्य पुरुषों के कषाय अति भयंकर समुद्र की बड़ी जल तरंगों के समान किनारे पर पहुँचकर नाश होते हैं। धन्यों में भी वह पुरुष धन्य है कि जो कषाय रूप गेहूँ और जौ के कणों को सम्पूर्ण चूर्ण करने के लिए चक्की के समान अन्तःकरण रूपी चक्की में पिसते हैं। इसलिए हे देवान प्रिय ! क्रोधादि निरोध करने में अग्रसर होकर तू भी उसका उसी तरह विजय कर कि जिससे तू सम्यग् आराधना कर सके। इस तरह क्रोधादि के निग्रह का तीसरा द्वार संक्षेप से कहा । अब चौथा प्रमाद त्याग द्वार को भेद पूर्वक कहता हूँ। चौथा प्रमाद त्याग द्वार :-जिसके द्वारा जीव धर्म में प्रमत्त-अर्थात् प्रमादी बनता है उसे प्रमाद कहते हैं। वह पाँच प्रकार का है-१. मद्य, २. विषय, ३. कषाय, ४. निद्रा और ५ विकथा। इसमें जिसके कारण जीव विकारी बनता है वह कारण सर्व प्रकार के विकारों का प्रगट अखण्ड कारण को मद्य कहलाता है। अबुध और सामान्य लोगों के पीने योग्य मद्य-शराब पण्डित जन उत्तम पुरुषों को अपेय अर्थात् पीने योग्य नहीं है, क्योंकि पेय और अपेय पण्डित और उत्तम मनुष्य ही जानते हैं। इस लोक और परलोक के हित के विचार में विशिष्ट पुरुषों ने जिसको यह जगत में निर्दोष देखा है या माना है वह उत्तम यश कारक और पवित्र श्रेष्ठ पीने योग्य है। अथवा जो आगम द्वारा निषिद्ध है, विशिष्ट लोगों में निन्दापात्र, विकारकारक इस लोक में भी प्रत्यक्ष बहत दोष दिखते हों, पीने से जो निर्मल हो परन्तु बुद्धि को आच्छादन करने वाला मन को शून्य बनाने वाला, सर्व इन्द्रियों के विषयों को विपरीत बोध कराने वाला, और सर्व इन्द्रिय समभाव वाली हो, स्वस्थ हो, प्रौढ़ बुद्धि
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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