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________________ श्री संवेगरंगशाला ४१३ बनाई थी। त्रिभुवन पति श्री ऋषभदेव भगवान के चरणों रूपी कमलों के स्पर्श से पूजित विनीता नगरी के सामने इन्द्रपुरी ने भी अल्पमात्र श्रेष्ठता को प्राप्त नहीं किया। मैं मानता हूँ कि उसके महान् सौन्दर्य को फैलते नजर से देखते देवता वहीं पर ही अनिमेषत्व प्राप्त करते हैं। राजाओं के मस्तक मणि के किरणों से व्याप्त चरण वाले और भयंकर चक्र द्वारा शत्रु समूह को कंपायमान करने वाला भरत राजा उसका पालन करता था। जिस भरत महाराजा के शत्रु की स्त्रियों का समूह स्तन पीठ ऊपर गिरते आंसु वाली बड़े मार्ग की उड़ती धूल से नष्ट हई शरीर की कान्ति का विस्तार वाली, आहार के ग्रहण से मुक्त, बील के फल से जीते, सर्प अथवा मेंढक के बच्चों से भरे हुए घर (जंगल) में रहते और प्रगट शिकारी प्राणियों की वेदना को सहन करते, दुःखी होते हुए भी मानो सुखी समान था। स्तन पीठ ऊपर से सरकते वस्त्रों वाला, महाप्रभा वाले रत्नों से उज्जवल शरीर की कान्ति के विस्तार वाला, मोती के हार को धारण करते राजलक्ष्मी और फल समूह को भोगते, हाथी, घोड़ों से शोभित महल में रहते और प्रगट चामर से सेवा होती थी। उसकी वामा नाम की प्रिय पत्नी ने उचित काल में किरणों के कान्ति समूह को फैलाते सूर्य के समान पुत्र को जन्म दिया। इससे बारहवें दिन राजा ने बड़े वैभव से जन्मकाल के अनुरूप उसका नाम 'मरिचि' स्थापन किया। बाल काल पूर्ण होने के बाद एक समय वह महात्मा मरिचि श्री ऋषभ जैनेश्वर के पास धर्म सुनकर प्रतिबोध हुआ । जीवन को कमलिनी पत्र के अन्तिम विभाग में लगे जल बिन्दु समान चंचल और संसार में उत्पन्न होते सारे वस्तु समूह को विनश्वर जानकर, विषय सुख का त्यागी और स्वजनादि के राग की भी अपेक्षा बिना उसने श्री ऋषभ देव के पास के संयम के उद्यम को स्वीकार किया। फिर उत्तम श्रद्धा से स्थविरों के पास सामायिकादि अंग सूत्रों का अध्ययन करते श्री जैनेश्वर भगवान के साथ विचरने लगा। अन्यदा किसी समय सूर्य के प्रचण्ड किरणों से विकराल ग्रीष्म ऋतु आई, तब पृथ्वी तल अति गरम हो गया और पत्थर के टुकड़े का समूह स्पर्श समान कठोर स्पर्श वाला वायुमण्डल हो गया और स्नान नहीं करने कारण पीड़ित मरिचि इस तरह कुवेश का चिन्तन करने लगा कि-तीन दण्ड से विरक्त श्रमण भगवन्त तो स्थिर शरीर वाले होते हैं, परन्तु इन्द्रिय दण्ड को नहीं जीतने वाले मुझे तो त्रिदण्ड का चिह्न बनूं । साधु वेश किए इन्द्रिय वाले और मुण्डन मस्तक वाले होते हैं, मैं तो अस्त्र से मुण्डन वाला, चोटी रखने वाला, मुझे तो हमेशा स्थूल हिंसा की विरति वाला बनूं । साधु अकिंचन (धन
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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