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________________ ४१२ श्री संवेगरंगशाला समय प्रसन्न रूप वाले को देखकर अति करुणा जोगीश्वर को प्रगट हुई, उसने अंजन सिद्धि की थी उसने विचार किया कि यह पुरुष अकाल में भी छोटी-सी उम्र वाला विचारा अभी ही क्यों मरता है ? अत: अंजन की सलाई से उसके आँखों में अंजन डाला और कहा कि - यम से भी निर्भय होकर यहाँ से चला जा । फिर अंजनसिद्धि के साधन को विनय पूर्वक नमस्कार करके वह वहाँ से भागा और आखिर मर कर कई जन्मों तक नीच योनि में जन्म लिया । फिर मनुष्य जन्म को प्राप्त किया और वहाँ केवली भगवन्त से अपने पूर्व जन्म जानकर दीक्षा स्वीकार की, वहाँ आयु पूर्ण कर माहेन्द्र कल्प में देव उत्पन्न हुआ । इस तरह हे क्षपक मुनि ! जातिमद से होने वाले दोष को देखकर तुझे अनिष्ट फलदायक जातिमद अल्प भी नहीं करना चाहिए। इस तरह प्रथम मद स्थान कहा है । और अब मैं कुल के मद का दूसरा मद स्थान अल्पमात्र कहता हूँ । २. कुलमद द्वार : - जातिमद के समान कुलमद को करने से निर्गुणी भी परमार्थ से अज्ञ मनुष्य अपने आप को दुःखी करता है । क्योंकि इस लोक में स्वयं दुरात्मा को गुण से युक्त उत्तम कुल भी क्या करता है ? क्या सुगन्ध से भरे हुए पुष्प में कीड़े उत्पन्न होते हैं ? हीन कुल में जन्मे हुए भी गुणवान सर्व प्रकार से लोक पूज्य बनते हैं; तथा कीचड़ में उत्पन्न हुआ भी कमल को मनुष्य मस्तक पर धारण करते हैं । उत्तम कुल वाले भी मनुष्य यदि शील, बल, रूप, बुद्धि, श्रुत, वैभव आदि से रहित हो और अन्य पवित्र गुणों के बिना होते हैं तो कुलमद करने से क्या लाभ है ? कुल भले अति विशाल भी हो और कुशील को अलंकार से भूषित भी करो, परन्तु चोरी आदि दुष्ट आसक्ति वाले उस कुशील को कुलमद करने से क्या हितकर है ? उत्तम कुल में जन्म लेने वाला भी यदि हीन कुल वाले का मुख देखता है उसका दासत्व स्वीकार करता है तो उसको कुलमद नहीं करना परन्तु मरना ही श्रेयस्कर है और दूसरी बात यह है कि यदि गुण नहीं है तो कुल से क्या प्रयोजन है ? गुणवन्त कुल का प्रयोजन नहीं है, गुण रहित मनुष्यों को निष्कलंक कुल यही महान कलंक है । यदि उस समय मरिचि ने कुल का मद नहीं किया होता, तो अंतिम जन्म में कुल बदलने का समय नहीं आता । उसका दृष्टान्त इस प्रकार है मरिचि की कथा नाभिपुत्र श्री ऋषभदेव के राज्य काल में अभिषेक में उद्यम करते विवेकी feat at fate देखकर प्रसन्न चित्त हुए इन्द्र ने श्रेष्ठ विनीता नगरी
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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