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________________ श्री संवेगरंगशाला ३८७ उसने श्रेष्ठ सुगन्ध की मनोहर मिलाकर चूर्णों को वासित किया और डब्बे में भर दिया तथा भोज पत्र में इस तरह लिखा कि-- जो इस उत्तम चूर्ण को सूंघकर इन्द्रियों के अनुकुल विषयों का भोग करेगा वह यम मन्दिर में जायेगा । और जो श्रेष्ठ वस्त्र, आभूषण, विलेपन आदि को, तलाई, दिव्य पुष्पों को भोगेगा तथा स्नान-शृङ्गार भी करेगा वह शीघ्र मरेगा । इस तरह चूर्ण के स्वरूप को बताने वाले भोज पत्र को भी उस चूर्ण में रखकर उस डब्बे को पेटी में रखा। उस पेटी को भी मजबूत कीलों से जोड़कर मुख्य कमरे में रख कर उसके दरवाजे पर मजबूत ताला लगाकर रखा । फिर स्वजनों से क्षमायाचना कर उनको जैन धर्म में लगाकर उसने अरण्य में जाकर गोकुल के स्थान पर इंगिनी अनशन को स्वीकार किया । इसका मूल रहस्य जानकर घायमाता ने राजा को कहा कि -पिता से अधिक पूजनीय चाणक्य का पराभव क्यों किया ? राजा ने कहा कि - वह मेरी माता का घातक है । तब उसने कहा - कि यदि तेरी माता को इसने मारा न होता तो तू भी नहीं होता ? क्योंकि तू जब गर्भ में था, तब तेरे पिता को विष मिश्रित भोजन का कोर लेकर खाते ही जहर से व्याकुल होकर तेरी माता रानी मर गई और उसका मरण देखकर महानुभाव चाणक्य ने उसका पेट छुरी से चीरकर तुझे निकालकर बचाया है । इस तरह निकालते हुये भी तेरे मस्तक पर काले वर्ण वाला जहर का बिन्दु लगा, इस कारण से हे राजन! तू बिन्दुसार कहलाता है । यह सुनकर अति संताप को करते राजा सर्व आडम्बर सहित उसी समय चाणक्य के पास गया और राग मुक्त उस महात्मा को उपले के ढेर के ऊपर बैठे देखा । राजा ने उसे सर्व प्रकार से आदरपूर्वक नमस्कार करके अनेक बार क्षमा याचना की और कहा कि - आप नगर में पधारो और राज्य को सम्भालो ! तब उसने कहा कि- मैंने अनशन स्वीकार किया है और राग से मुक्त हुआ हूँ । चुगली के कड़वे फल को जानते हुये चाणक्य ने उस समय सुबन्धु की कारस्तानी को जानते हुए भी उसने राजा को कुछ भी नहीं कहा। इसके बाद दो हाथ ललाट पर जोड़कर सुबन्धु ने राजा से कहा कि - हे देव मुझे आपकी आज्ञा हो तो मैं इनकी भक्ति करूँ । राजा की आज्ञा मिलते ही क्षुद्र बुद्धि वाले सुबन्धु ने धूप जलाकर ! उसके अंगारे उपलों में डाले । राजा आदि सभी लोग अपने स्थान पर चले 1 गये । फिर शुद्ध लेश्या में स्थिर रहा चाणक्य उस उपले की अग्नि से जल गया और देवलोक में देदीप्यमान शरीर वाला, महद्धिक देव हुआ । वह सुबन्धु मंत्री उसके मरण से आनन्द मनाने लगा ।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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