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________________ ३६६ श्री संवेगरंगशाला लोक को निष्फल कर देगा। जिसके कारण से जिसकी चुगली करने में आती है उसका अनर्थ होने में अनेकान्त है उसका अनर्थ हो अथवा न भी हो, परन्तु चुगल खोर का तो द्वेष भाव से अवश्य अनर्थ होता है। पैशुन्य से माया, असत्य, निःशकता, दुर्जनता और निर्धनी जीवन आदि अनेक दोष लगते हैं। दूसरे के मस्तक पर छेदन करना अच्छा परन्तु चुगली करना अच्छा नहीं है, क्योंकि-मस्तक छेदन में इतना दुःख नहीं होता जितना दुःख पैशुन्य द्वारा मन को अग्नि देने समान हमेशा होता है । पैशुन्य के समान अन्य महान पाप नहीं है, क्योंकि पैशुन्य करने से सामने अन्य जहर से लिप्त बाण अथवा भाले से पीड़ित शरीर वाले के समान यावज्जीव दुःखपूर्वक जीता है। क्या चुगल खोर स्वामी घातक है ? गुरू घातक है ? अथवा अधर्माचारी है ? नहीं, नहीं इनसे भी वह अधिक अद्यम है । पैशुन्य के दोष से सुबन्धु मन्त्री ने कष्ट को प्राप्त किया और उसके ऊपर पैशुन्य नहीं करने से चाणक्य ने सद्गति को प्राप्त की। वह इस प्रकार : सबन्धु मन्त्री और चाणक्य की कथा पाटलीपुत्र नगर में मौर्य वंश का जन्म हुआ, बिन्दुसार नाम का राजा था और उसका चाणक्य नाम का उत्तम मन्त्री था। वह श्री जैन धर्म में रक्त चित्त वाला, औत्पातिकी आदि बुद्धि से युक्त और शासन प्रभावना में उद्यमशील बना, दिन व्यतीत करता था। एक दिन पूर्व में राज्य भ्रष्ट हुआ नन्द राजा का सुबन्धु नामक मन्त्री ने पूर्व वैर के कारण चाणक्य के दोष देखकर राजा को इस तरह कहा कि-हे देव ! यद्यपि आप मुझे प्रसन्न या खिन्न दृष्टि से भी नहीं देखते हैं, फिर भी आपको हमें हितकर ही कहना चाहिए । चाणक्य मन्त्री ने तुम्हारी माता का पेट चीरकर मार दी थी, तो इससे दूसरा आपका वैरी कौन हो सकता है ? ऐसा सुनकर क्रोधित बने राजा ने अपनी धायमाता से पूछा तो उसने भी वैसे ही कहा, परन्तु मूल से उसका कारण नहीं कहा । उस समय पर चाणक्य आया और राजा उसे देखकर शीघ्र ललाट पर भृकुटी चढ़ाकर विमुख हुआ। उस समय अहो ! इस समय राजा की मर्यादा भ्रष्ट हुई है। इस तरह मेरा पराभव क्यों करता है ? ऐसा सोचकर चाणक्य अपने घर गया, फिर घर का धन, पुत्र, प्रपौत्र आदि स्वजनों को देकर निपूण बुद्धि से उसने विचार किया कि मेरे मन्त्री पद की इच्छा से किसी चुगल खोर ने इस राजा को इस प्रकार क्रोधित किया है, अतः मैं ऐसा करूं कि जिससे वह चिरकाल दुःख से पीड़ित होकर जीये । इस तरह सोचकर
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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