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________________ श्री संवेगरंगशाला ३८७ क्या असाध्य है ? ऐसा विचार करते वह उस तपस्वी के पास गया और भावपूर्वक नमस्कार करके अपने दुराचरण को बतलाया । मुनि ने भी उसे अति विस्तारपूर्वक श्री जैन धर्म का स्वरूप समझाया । उसे सुनकर वह प्रतिबोध हआ और उसने साधु धर्म स्वीकार किया, तथा यथा विधि उसका पालन करने लगा, परन्तु उसने मद के महा भयंकर विपाकों को सुनने पर भी किसी प्रकार जाति मद को नहीं छोड़ा। आखिर मरकर वह स्वर्ग में देदीप्यमान देव हुआ और वहाँ से आयुष्य पूर्ण कर जाति मद के अभिमान से गंगा नदी के किनारे चंडाल के कुल में रूप रहित और अपने स्वजनों का भी हांसी पात्र बल नाम का पुत्र हुआ । अत्यन्त कलह खोर और महा पिशाच के समान उद्वेगकारी उसने क्रमशः दोषों से और शरीर से वृद्धि प्राप्त की। फिर वसन्तोत्सव आते मदिरापान और नाचने में परायण स्वजनों से कलह करते उसे निकाल दिया। इससे अत्यन्त खेदित होते स्वजनों के नजदीक में रहकर विविध श्रेष्ठ क्रीड़ाएँ करता था । इतने में काजल और मेव के समान काला श्याम तथा हाथी की सूंड समान स्थूल सर्प उस प्रदेश में आया और लोगों ने मिलकर उसे मार दिया। उसके बाद थोड़े समय में वैसा ही उसी तरह दूसरा सर्प आया, परन्तु वह जहर रहित है, ऐसा मानकर किसी ने भी उसे नहीं मारा। यह देखकर बल ने विचार किया कि निश्चय ही सर्व जीव अपने दोष और गुण के योग्य अशुभ शुभ फल को प्राप्त करते हैं, इसलिये भद्रिक परिणाम वाला होना चाहिए। भद्रिक जीव कल्याण को प्राप्त करता है जहर के कारण सर्प का नाश हुआ और जहर रहित सर्प मुक्त बना। दोष सेवन करने वाले को अपने स्वजनों से भी पराभव होता है इसमें क्या आश्चर्य है ? इसलिए अब भी दोषों का त्याग, गुणों को प्रगट करना चाहिए। ऐसा विचार करते साधु के पास गया, वहाँ धर्म सुनकर संसारवास से अति उद्वेग होते वह मातंग नाम का महामुनि बना । दो, तीन, चार, पाँच और पन्द्रह उपवास आदि विविध तप में रक्त वह महात्मा विचरते वाराणसी नगरी में गये और वहाँ तिद्रक नामक उद्यान में गंडी तिंद्रुक यक्ष के मन्दिर में रहे और वह यक्ष मुनि की भक्तिपूर्वक सेवा करने लगा। किसी समय दूसरे उद्यान में रहे यक्ष ने आकर गंडी तिंद्रक यक्ष को कहा कि हे भाई ! तुम क्यों दिखते नहीं हो ? उसने कहा कि-सभी गुणों के आधारभूत इस मुनिवर की हमेशा स्तुति -सेवा करता हूँ और अपना समय व्यतीत करता हूँ। मुनि श्री का आचरण देखकर प्रसन्न हआ और उसने भी तिंद्रुक यक्ष को कहा कि हे मित्र ! तू ही कृतार्थ बना है कि जिसके वन में ऐसे मुनि विराजमान हैं, मेरे उद्यान में भी मुनिराज
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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