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________________ ३८२ श्री संवेगरंगशाला अर्हन्नक की पत्नी और अर्हमित्र की कथा श्री क्षति प्रतिष्ठित नगर में अर्हन्नक और अर्हमित्र नामक परस्पर दृढ़ प्रेम वाले दो भाई रहते थे। एक दिन तीव्र अनुराग वाली बड़े भाई की स्त्री ने छोटे भाई (देवर) को भाग करने की प्रार्थना की, और उसने बहुत बार रोका, फिर भी वह बलात्कार करती थी, तब उसने कहा कि - क्या मेरे भाई को तू नहीं देखती ? इससे अनाचार वाली उसने पति को खत्म कर दिया और फिर उसने कहा- मैंने ऐसा कार्य किया है फिर भी मुझे क्यों नहीं चाहते ? तब 'इस स्त्री ने मेरे भाई को मार दिया है' इस प्रकार निश्चय करके घर से वैराग्य उत्पन्न हुआ और उसने श्री भागवती दीक्षा स्वीकार की, तथा साधुओं के साथ अन्यत्र विहार किया । वह स्त्री आर्त्तध्यान के आधीन होकर मरकर कुत्ती हुई । साधु समूह के साथ में विचरते अमित्र भी उस गाँव में आया जहाँ कुत्ती रहती थी । इससे पूर्व स्नेह के वश वह कुत्ती उनके पास में रहने लगी, दूर करने पर भी साथ रहने लगी, इससे उपसर्ग मानकर अमित्र मुनि रात को कहीं भाग गये । कुत्ती भी उसके वियोग में मरकर जंगल में बन्दरी रूप जन्म लिया और वह महात्मा भी किसी तरह विहार करते उसी जंगल में पहुँचे । वहाँ बन्दरी ने उसे देखा और पूर्व राग से वह उससे लिपट गई, शेष साधुओं ने महामुश्किल से छुड़ाया और वह मुनि कहीं छुप गया, परन्तु वह उसके विरह से मरकर यक्षिणी हुई उसके छिद्र देखने लगी और विहार करते वह विरागी साधु को युवान साधुओं ने हँसी पूर्वक कहा कि - हे अर्हमित्र ! तू धन्य है या हे मित्र ! तू कुत्ती और पर्वत की बन्दरी को भी प्रिय है । इस तरह मजाक करने पर भी कषाय रहित वह मुनि किसी समय जल प्रवाह को पार करने के लिए जंघा को लम्बी करके जब जाने लगे, तब गति भेद होने से पूर्व में क्रोधित बनी उस यक्षिणी ने उसके साथ काट दिये । अहो ! दुष्ट हुआ, दुष्ट हुआ, अपकाय जीवों की विराधना न हो ! ऐसा शुभ चिन्तन करते वह जितने में अधीर बना, उतने में शीघ्र ही सम्यग् दृष्टि देवी ने उस यक्षिणी को पराजय करके टुकड़े सहित उसके साथल को जोड़कर पुनः अखण्ड बना दिया । इस तरह राग- प्रेम के वैराग्य में प्रवृत्ति करने वाले को सद्गति को प्राप्त किया और राग से पराभूत वह यक्षिणी विडम्बना का पात्र बनी । इस तरह - हे देवानुप्रिय ! तू भी इष्ट अर्थ की सिद्धि के लिए श्री जैन वचन रूपी निर्मल जल से रागाग्नि को शांत कर। इस तरह दसवाँ पाप स्थानक संक्षेप से कहा है, अब द्वेष नामक ग्यारहवाँ पाप स्थानक कहते हैं ।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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