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________________ श्री संवेगरगशाला ३८१ अदर्शनीय, मैल से भरा हुआ, दुर्गन्धमय देखने में दुःख होता है और अत्यन्त लज्जास्पद, इसके कारण ही अत्यन्त ढका हुआ तथा हमेशा अशुचि झरने वाला और ज्ञानी पुरुषों द्वारा निन्दनीय, स्त्री के गुप्त भाग में पराक्रमी पुरुष भी राग करता है । अतः राग के चारित्र को धिक्कार है। इस तरह शरीर के राग से उसकी मालिस और स्नान आदि द्वारा परिश्रम करता है वह ऐसा चिन्तन नहीं करता कि इतना उपचार करने पर भी यह अपवित्र ही रहता है। इस तरह धन, अनाज, सोना, चाँदी, क्षेत्र, वस्तु में और पश पक्षी आदि में राग से उस वस्तु की प्राप्ति के लिए स्वदेश से परदेश में जाता है और पवन से उड़े हुए सूखे पत्तों के समान अस्थिर चित्त वाला वह शारीरिक और मानसिक असंख्य तीव्र दुःखों का अनुभव करता है। अधिक क्या कहें ? जगत में जीवों को जो-जो अति कठोर वेदना वाला दुःख होता है वह सब राग का फल है। जो कुंकुम को भी अपने मूल स्थान से देश का त्याग रूप परावर्तन और चरण होता है अथवा मजीठ को मूल में से उखाड़ना आदि उबालना तक के कष्ट होते हैं तथा कुसुंभा को तपाया जाता है, खण्डन और पैर आदि से मर्दन होता है, वह उसमें रहे द्रव्य भी राग की ही दुष्ट चेष्टा जानना। राग द्वारा दुःख, दुःख से आत-रौद्र ध्यान और उस दुर्ध्यान से जीव इस लोक और परलोक में दुःखी होता है । जो जीवों का सर्व प्रकार से विपरीत करने वाला एक राग ही है अर्थात् इस संसार का मूल कारण एक राग ही है और कोई हेतु के समूह नहीं है। और मनुष्य रागादि पदार्थ को जहाँ-तहाँ से कष्ट के द्वारा प्राप्त कर जैसे-जैसे उसे भोगता है वैसे-वैसे राग बढ़ता जाता है। जो बिन्दुओं से समुद्र को भर सकता है, अथवा ईंधन से अग्नि को तृप्त कर सकता है, तो राग की तृष्णा को प्राप्त करने वाला पुरुष भी इस संसार में तृप्ति को प्राप्त कर सकता है । परन्तु किसी ने इस जगत में ऐसा किया हुआ देखा अथवा सुना भी नहीं है, उससे विवेक होने पर विवेकी को राग रण के विजय में प्रयत्न करना चाहिये, यही युक्त है । जगत में जीवों को जो-जो बड़े परम्परा वाला सुख होता है वह राग रूपी दुर्जय शत्रु का अखण्ड विजय का फल है । जैसे उत्तम रत्नों के समूह के सामने काँच के मणि शोभायमान नहीं होते हैं वैसे राग विजय में सामने देवी अथवा मनुष्य का श्रेष्ठ सुख अल्पमात्र भी शोभायमान नहीं होता है। इस राग पाप स्थानक के दोष में अर्हन्नक की पत्नी और उसके वैराग्य के गुण में उसका अर्ह मित्र देवर का दृष्टान्त है । वह इस प्रकार है :
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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