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________________ श्री संवेगरंगशाला ३७७ उसके पास आते देखकर गुरू ने कहा कि-'हे महानुभाव ! तुझे मन्त्र का प्रयोग करना योग्य नहीं है।' गुरू के शब्दों से उसने 'मिच्छामि दुक्कडं देकर पुनः नहीं करूँगी आपने जो प्रेरणा की वह बहुत अच्छा किया।' इस तरह उत्तर दिया। फिर पुनः एक दिन एकान्त में नहीं रह सकने से उसने फिर लोगों को आकर्षण किया और गुरू ने उसका निषेध किया। इस तरह जब चार बार निषेध किया तब उसने माया युक्त कहा कि-हे भगवन्त ! मैं कुछ भी विद्या बल का प्रयोग नहीं करती हूँ, किन्तु ये लोग स्वयमेव आते हैं। इस तरह उसने माया के आधीन बनकर आराधना का फल गंवा दिया और अन्तिम समय में मरकर सौधर्म कल्प में ऐरावण नामक देव की देवी रूप बनी। इस तरह माया के दोष में पंडरा साध्वी का दृष्टान्त कहा है। अब दोष और गुण दोनों का पूर्व में कहा था उन वणिकों का दृष्टान्त कहता हूँ। दो वणिक पत्र की कथा पश्चिम विदेह में दो व्यापारी मित्र रहते थे। उसमें एक मायावी और दूसरा सरलता युक्त था, इस तरह दोनों चिरकाल व्यापार करते मर गये और भरत क्षेत्र में सरलता वाले जीव ने युगलिक रूप में जन्म लिया और दूसरा मायावी हाथी रूप में उत्पन्न हआ। किसी समय परस्पर दर्शन हुआ, फिर मायावश बन्धन किए आभियोगिक कर्म के उदय से हाथी ने पूर्व संस्कार की प्रीति से उस युगलिक दम्पत्ति को कंधे के ऊपर बैठाकर विलास करवाया। इस तरह मायावी का अनर्थ और उससे विपरीत सरलता के गुण को देखकर हे क्षपक मुनि ! माया रहित बनकर तू सम्यक् आराधना को प्राप्त कर । इस तरह आठवाँ पाप स्थानक अल्पमात्र कहा है। अब लोभ के स्वरूप को बताने में परायण नौवाँ पाप स्थानक को कहते हैं। ६. लोभ पाप स्थानक द्वार :-जैसे पूर्व में न हो, फिर भी वर्षा के बादल प्रगट होते हैं और प्रगट होने के बाद बढ़ते हैं, वैसे पुरुष में लोभ न हो तो प्रगट होता है तथा हर समय बढ़ता जाता है और लोभ बढ़ते पुरुष कर्तव्यअकर्त्तव्य के विचार बिना का हो जाता है, मृत्यु को कुछ भी नहीं गिनते, महा साहस को करता है । लोभ से मनुष्य पर्वत की गुफा में और समुद्र में गहराई में प्रवेश करता है तथा भयंकर युद्ध भूमि में भी जाता है तथा प्रिय स्वजनों को तथा अपने प्राणों का भी त्याग करता है। तथा लोभी को उत्तरोत्तर इच्छित धन की अत्यन्त प्राप्ति होती है, फिर भी तृष्णा ही बढ़ती है तथा स्वप्न में भी तृप्ति नहीं होती है। लोभ अखण्ड व्याधि है, स्वयं भूरमण समुद्र
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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