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________________ ३७६ श्री संवेगरंगशाला वाली है। माया गुणों की हानिकारक है, दोषों को स्पष्ट रूप में बढ़ाने वाली है और विवेक रूपी चन्द्र बिम्ब को गलाने वाला एक राहुग्रह है । ज्ञान अभ्यास किया, दर्शन का आचरण किया, चारित्र का पालन किया और अति चिरकाल तप भी किया परन्तु यदि माया है तो वह सर्व नष्ट हो जाता है। इससे परलोक की तो बात दूर रही, परन्तु मायावी मनुष्य यद्यपि अपराधकारी नहीं होता है फिर भी इस जन्म में ही सर्प के समान भयजनक दिखता है। मनुष्य जैसे-जैसे माया करता है, वैसे-वैसे लोक में अविश्वास प्रगट करता है और अविश्वास के कारण आकड़े की रुई से भी हल्का बन जाता है। इसलिए हे सुन्दर ! इस विषय का विचार कर । माया को सर्वथा त्याग करना चाहिए, क्योंकि इसके त्याग से निर्दोष शुद्ध सरलता गुण प्रगट होता है। सरलता से पुरुष जहाँ-जहाँ जाता है वहाँ-वहाँ लोग उसकी 'यह सज्जन है, सरल स्वभावी है' इस प्रकार प्रशंसा करते हैं। मनुष्यों की प्रशंसा को प्राप्त करने में शीघ्रता से गुण प्रगट होते हैं, इसलिए गुण समूह के अर्थी को माया त्याग करने में प्रयत्न करना ही योग्य है। प्रथम मधुर फिर खट्टी छाश के समान प्रथम मधुरता बताकर फिर विकार दिखाने वाला मायावी मनुष्य मधुरता को छुड़ाने से जगत को रूचिकर नहीं होता है । यहाँ पर आठवें पाप स्थानक के दोष में पंडरा साध्वी का दृष्टान्त है अथवा दोष-गुण में यथा क्रम दो वणिक पुत्रों का भी दृष्टान्त है । वह इस प्रकार है : साध्वी पंडरा आर्या की कथा एक शहर में धनवान उत्तम श्रावक के विशाल कुल में एक पुत्री ने जन्म लिया, और उसने संसार से वैराग्य प्राप्त कर दीक्षा स्वीकार की, उत्तम साध्वियों के साथ रहती हुई भी वह ग्रीष्म ऋतु में मलपरीषह को सहन नहीं कर सकी । अतः शरीर और वस्त्रों को साफ सुथरा करती थी, इससे साध्वी उसको प्रेरणा करती कि ऐसा करना साध्वी के लिए योग्य नहीं है। ऐसा सहन नहीं करने से वह अलग उपाश्रम में रहने लगी। वहाँ उज्जवल वस्त्र और शरीर साफ रखने से लोग में 'पंडरा आर्या' इस नाम से प्रसिद्ध हुई, और वह अपनी पूजा के लिए विद्या के बल से नगर के लोगों को आश्चर्यचकित तथा भयभीत करती थी, परन्तु अन्तिम उम्र में किसी प्रकार परम वैराग्य को प्राप्त कर उसने सद्गुरूदेव समक्ष पूर्व के दुराचारों का प्रायश्चित करके, संघ समक्ष अनशन स्वीकार किया और शुभ ध्यान में रहकर, केवल अपने पूजा सत्कार के लिये मन्त्र प्रयोग से लोगों को आकर्षण करती थी। नगर के लोग हमेशा
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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