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________________ श्री संवेगरंगशाला ३५३ है । और जो इस लोक में जीवों के प्रति विशुद्ध जीव दया को सम्यक् रूप पालन करता है वह स्वर्ग में मंगल गीत और वाजित्रों के शब्द श्रवण का सुख, अप्सराओं के समूह से भरा हुआ और रत्न के प्रकाश वाला श्रेष्ठ विमान चिन्तन मात्र से प्राप्त करता है, सकल विषय सुख वाला देव बनता है और वहाँ से च्यवन कर भी असाधारण सम्पत्ति का विस्तार वाला, उज्जवल यश वाला उत्तम कुल में ही जन्म लेता है । दया के प्रभाव से वह जगत के सभी जीवों को सुख देने वाला, दीर्घ आयुषी, निरोगी, नित्य शोक, संताप रहित और काया क्लेश से मनुष्य होता है, वह हीन अंग वाला, पंगु, बड़े पेट वाला, कुबड़ा, ठिगना, लावण्य रहित और रूप रहित नहीं होता है । तथा दया धर्म को करने से मनुष्य सुन्दर रूप वाला, सौभाग्यशाली, महाधनिक, गुणों से महान् और असाधारण बल, पराक्रम और गुण रत्नों से सुशोभित शरीर वाला, माता-पिता के प्रति प्रेम वाला, अनुरागी स्त्री, पुत्र, मित्रों वाला और कुल वृद्धि को करने वाला होता है । जिनको प्रिय मनुष्यों के साथ वियोग, अप्रिय का समागम, भय, बिमारी, मन की अप्रसन्नता, हानि, पदार्थ का नाश नहीं होता है । इस प्रकार पुण्यानुबन्धी पुण्य के प्रभाव से जिसको बाह्य, अभ्यन्तर सर्व संयोग सदा अनुकूल ही होते हैं, दयालु मनुष्य सम्पूर्ण जैन धर्म की सामग्री को प्राप्त कर और उसे विधिपूर्वक आराधना कर जीव दया के पारमार्थिक फल को प्राप्त करता है । इस तरह जिसके प्रभाव से जीवात्मा श्रेष्ठ कल्याण की परम्परा को सम्यग् रूप से प्राप्त करता है और पूज्य बनता है वह जीव या विजयी रहे । अथवा लौकिक शास्त्र में भी इस जीव हिंसा का पूर्व कहे अनुसार त्याग रूप कहा है, तो लोकोत्तर शास्त्र में पुनः क्या कहना ? प्राणीवध, आसक्त' और उसकी विरति वाले इस जन्म में दोष और लाभ होता है । इस हिंसा अहिंसा विषय में भी सासु, बहु और पुत्री का दृष्टान्त देते हैं, वह इस प्रकार है : सास-बहु और पुत्री की कथा बहुत मनुष्यों वाला और विशाल धन वाला तथा शत्रु सैन्य, चोर या मरकी का भय कभी देखा ही नहीं था, उस शंखपुर नामक नगर में बल नाम का राजा था । उस राजा के प्रीति का पात्र और सभी धन वालों का माननीय सर्वत्र प्रसिद्ध सागरदत्त नाम का नगर सेठ था । उस सेठ की सम्पदा नाम की स्त्री थी, उसको मुनिचन्द्र नाम से पुत्र, बन्धुमती नाम की पुत्री और थावर नामक छोटा बाल नौकर था । उस नगर के नजदीक में वटप्रद नामक अपने
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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