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________________ ३५२ श्री संवेगरंगशाला से भी जीव को तीव्र वेदना होती है तो तीर, भाला आदि शस्त्रों से मारे जाते हैं उस जीव को कितनी, कैसी पीड़ा होती है ? हाथ में शस्त्र रखने वाले हिंसक को आये देखकर भी विषाद और भय से व्याकुल बनकर जोव कांपने लगता है, निश्चय लोक में मरण के समान भय नहीं है। 'मर जा' इतना कहने पर भी जीव को यदि अतीव दु:ख होता है, तो तीक्ष्ण शस्त्रों के प्रहार से मरते हये क्या दुःख नहीं होता है ? जो जीव जहाँ जिस शरीर आदि में जन्म लेता है वहीं राग करता है, इसलिए जहाँ जीव रहता है उसमें हमेशा दया करनी चाहिए । अभयदान समान अन्य कोई बड़ा दान सारे जगत में भी नहीं है। इसलिए जो उसे देता है वही सच्चा दानवीर-दातार है। इस जगत में मरते जीव को यदि करोड़ सोना मोहर का दान दे और दूसरी ओर जीवन दान देने में आए तो जीवन के चाहने वाला जीव करोड़ सोना मोहर स्वीकार नहीं करेगा । जैसे राजा भी मृत्यु के समय समग्र राज्य को देता है वैसे जो अमूल्य जीवन को देता है वह इस जीवलोक में अक्षयदान को देता है । वह धामिक है, विनीत है, उत्तम विद्वान है, चतुर है, पवित्र और विवेकी है कि अन्य जीवों में सुख-दुःख को अपनी उपमा दी है अर्थात् सुख-दुःख अपने आप में माना है। अपना मरण आते देखकर जो महादुःख होता है, उसके अनुमान से सर्व जीवों को भी देखना चाहिए । जो स्वयं को अनिष्ट हो वह दूसरों को भी सर्वथा नहीं करे, क्योंकि इस जन्म में जैसा किया जाता है वैसा ही फल मृत्यु के बाद मिलता है। समग्र जगत में भी जीवों को प्राणों से भी अधिक कोई भी प्रिय नहीं है, इसलिए अपने दृष्टान्त से उनके प्रति दया ही करनी चाहिए । जो जीव जिस प्रकार, जिस निमित्त, जिस तरह से पाप को करता है, वह उसका फल भी उसी क्रम से वैसा ही अनेक बार प्राप्त करता है । जैसे इस जन्म में दातार अथवा लूटेरा उस प्रकार के ही फल को प्राप्त करता है वैसे ही सुखदु:ख का देने वाला भी पुण्य और पाप को प्राप्त करता है । जो दुष्ट मन, वचन और काया रूपी शस्त्रों से जीवों की हिंसा करता है, वही उसी शस्त्रों द्वारा दस गुणा से लेकर अनन्त गुणा तक मारा जाता है। जो हिंसक भयंकर संसार को खत्म करने में समर्थ है और दया तत्त्व को नहीं समझता है, उसके ऊपर गर्जना करती भयंकर पाप रूपी वज्राग्नि गिरती है। इसलिए हे बन्धु ! सत्य कहता हूँ कि-हिंसा सर्वथा त्याग करने योग्य है, जो हिंसा को छोड़ता है वह दुर्गति को भी छोड़ देता है, ऐसा समझो ! जैसे लोहे का गोला पानी में गिरता है तो आखिर नीचे स्थान पर जाता है, वैसे हिंसा से प्रगट हुये पाप के भार से भारी बना जीव नीचे नरक में गिरता
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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