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________________ ३५० श्री संवेगरंगशाला और वह अनुशासित करने से होता है, इसलिए निषेध और विधान रूप श्रेष्ठ अर्थ समूह रूप तत्त्व को जानने में दीपक समान प्रथम अनुशास्ति द्वार को विस्तारपूर्वक कहता हूँ। प्रयम अनुशास्ति द्वार :-स्वयं भी पाप व्यापार का त्यागी और अति प्रशान्त चित्त वाला निर्यामक गुरू महाराज क्षपक मुनि को मधुर वाणी से कहे कि-निश्चय हे देवानु प्रिय ! तू इस जगत में धन्य है, शुभ लक्षणों वाला, पुण्य की अन्तिम सीमा वाला, और चन्द्र समान निर्मल यश सम्पत्ति से सर्व दिशाओं को उज्जवल करने वाला है। मनुष्य जीवन का सर्वश्रेष्ठ फल तूने प्राप्त किया है और तूने दुर्गति के कारणभूत अशुभ कर्मों की जलांजली दी है। क्योंकि-तू पुत्र, स्त्री आदि परिवार से युक्त था, फिर भी गृहस्थवास को तृण के समान त्याग करके अत्यन्त भावपूर्वक श्री भगवती श्रेष्ठ दीक्षा को स्वीकार की और उसे दीर्घकाल तक पालन कर अब धीर तू सामान्य मनुष्य को सुनकर ही चित्त में अतीव क्षोभ प्रगट हो, ऐसा अति दुष्कर इस अनशन को स्वीकार करके इस तरह अप्रमत्त चित्त से साधना कर रहे हो। इस प्रकार की प्रवृत्ति तुझे सुविशेष गुण साधन में समर्थ और दुर्गति को भगाने वाली कुछ शिक्षाउपदेश देता हूँ, इस शिक्षा में त्याज्य वस्तु विषय के पाँच और करणीय वस्तु विषय के तेरह द्वार जानना। वह इस तरह-१. अट्ठारह पाप स्थानक, २. आठ मद स्थान, ३. क्रोधादि कषाय, ४. प्रमाद, और ५. विघ्नों का त्याग द्वार हैं, ये पाँच निषेध द्वार हैं । तथा ६. सम्यक्त्व में स्थिरता, ७. श्री अरिहंत आदि भक्ति छह प्रतिभा, ८. पंच परमेष्ठि नमस्कार में तत्परता, ६. सम्यग् ज्ञान का उपयोग, १०. पाँच महाव्रतों की रक्षा, ११.क्षपक के चार शरण स्वीकार, १२. दुष्कृत की गर्दा करना, १३. सुकृत की अनुमोदना करना, १४. बारह भावना से युक्त होना, १५. शील का पालन करना, १६. इन्द्रियों का दमन करना, १७. तप में उद्यमशील, और १८. निःशल्यता। इस तरह अनुशास्ति द्वार में निषेध और विधान रूप अट्ठारह अन्तर द्वारों को नाम मात्र कहा है। अब अपने-अपने क्रमानुसार आये हुये उन द्वारों को ही सिद्धान्त से सिद्ध दृष्टान्त युक्ति और परमार्थ से युक्त विस्तारपूर्वक कहता हूँ। इसमें अब प्रथम अट्ठारह अन्तर द्वार वाला अट्ठारह पाप स्थानकों का द्वार मैं कहता हूँ। अट्ठारह पाप स्थान के नाम :-जीव को कर्मरज से मलिन करता है इस कारण से इसे पाप कहते हैं। इसके ये अट्ठारह स्थानक अथवा विषय हैं(१) प्राणीवध, (२) अलिक वचन, (३) अदत्त ग्रहण, (४) मैथुन सेवन,
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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