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________________ ॐ अहं नमः ॥ नमोऽस्तु श्री जैन प्रवचनायः ॥ श्री आत्मवल्लभ ललित पूर्णानन्द प्रकाश चन्द सूरि गुरूभ्योः नमः (४) चौथा द्वार समाधि लाभ द्वार चौथे द्वार का मंगलाचरण सद्धम्मोसहदाणा, पसमिय कम्माऽऽमयो तयऽशु काउं । सत्वंग नित्वुई लद्ध जयपसिद्धी सुवेज्जोत्व ॥ ५५५५ ॥ तइलोक्कमत्थयमणी मणीहियत्थाण दाणदुल्ललिओ । सिरि वद्धमाणसामी समाहि लाभाय भवउ ममं ।। ५५५६ ॥ अर्थात् - औषधदान से रोग को उपशम करके और फिर सर्व अंगों में स्वस्थता प्राप्त करवा कर उत्तम वैद्य जैसे प्रसिद्धि प्राप्त करता है, वैसे भव्य जीवों को धर्मरूप औषध दान देने से कर्मरूपी रोग को विनाश करके और फिर सर्वांग निवृत्ति (निर्वाण) पद प्राप्त करके तीन जगत में प्रसिद्ध प्राप्त करने वाले तीन लोक के चूड़ामणि भव्य जीवों के मन वांछित प्रयोजन का दान करने में एक महान् व्यसनी श्री वर्धमान स्वामी मुझे समाधि प्राप्त कराने वाले हो । -- आत्मा का परिकर्म करे, फिर अन्य गच्छ में जाए और ममत्व का छेदन करे, फिर भी क्षपक मुनि समाधि के बिना प्रस्तुत समाधि मरण रूप कार्य को सिद्ध नहीं कर सकता है, इस कारण से ममत्व विच्छेद को कहकर अब 'समाधि लाभ द्वार' को कहते हैं । इसमें यह नौ अन्तर द्वार हैं : (१) अनुशास्ति, (२) प्रतिपत्ति, (३) सारणा, (४) कवच, (५) समता, (६) ध्यान, (७) लेश्या, (८) आराधना का फल, और ( ६ ) शरीर का त्याग । इस विश्व में कारण के अभाव में कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता है और यहाँ प्रस्तुत कार्य एक अत्यर्थ आराधना रूप है । उसका परम कारण चतुर्विध आहार का पच्चक्ख़ान स्वीकार करके क्षपक मुनि को समाधि लाभ होता है,
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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