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________________ ३३० श्री संवेगरंगशाला इस प्रकार यदि तिर्यंचों को भी संसर्गवश गुण-दोष की सिद्धि जगत में प्रसिद्ध है, तो तप से दुर्बल दुःख से पालन हो सके ऐसी अनशन की साधना में उद्यमशील बना तपस्वी को दुष्ट मनुष्यों के पड़ोस में रहने से स्वाध्याय में विघ्न आदि का कारण कैसे नहीं हो सकता है ? उनका भी पतन हो सकता है। कूशील मनुष्यों का पड़ोस में रहने से श्रेष्ठ समता वाला भी, इन्द्रियों का श्रेष्ठ दमन करने वाला भी और पूर्ण निरभिमानी भी कलुषित बनता है, उसमें क्या आश्चर्य है ? अन्य मनुष्यों से रहित एकान्त वसति में क्लेश, बातें, झगड़ा विमूढ़ता दुर्जन का मिलन, ममत्व और ध्यान-अध्ययन में विघ्न नहीं होता है। इसलिए जहाँ मन को क्षोभ करने वाले पाँचों इन्द्रियों के विषय न हों, वहाँ तीनों गुप्त से गुप्त क्षपक मुनि शुभ ध्यान में स्थिर रह सकता है। जो उद्गम, उत्पादना और एषणा से शुद्ध हो, साधु के निमित्त में सफाई अथवा लिपाई आदि किए बिना हो, स्त्री, पशु, नपुंसक से अथवा सूक्ष्म जीवों से रहित हो, साधु के लिए जल्दी अथवा देरी से तैयार नहीं किया हो, जिसकी दिवार मजबूत हो, दरवाजे मजबूत हों, गाँव के बाहर हो, गच्छ के बाल-वृद्धादि साधु योग्य हों, ऐसा रहने का स्थान शय्या में अथवा उद्यान घर में, पर्वत की गुफा में अथवा शून्य घर में रहे । तथा सुखपूर्वक निकल सके और प्रवेश कर सके, ऐसा चटाई का परड़े वाली और धर्म कथा के लिये मण्डप सहित दो अथवा तीन वसति रखनी चाहियें, उसमें एक के अन्तर क्षपक को और दूसरे के अन्दर गच्छ में रहे साधुओं को रखना चाहिए कि जिससे आहार की गन्ध से क्षपक मुनि को भोजन की इच्छा न हो। पानी आदि भी वहाँ रखे जहाँ तपस्वी नहीं देखे, अपरिणत (तुच्छ सामान्य) साधुओं को भी वहाँ नहीं रखे। यहाँ प्रश्न करते हैं-सामान्य साधु को नहीं रखने का क्या कारण है ? इसका उत्तर देते हैं-नहीं रखने का मुख्य कारण यह है कि किसी समय क्षपक मुनि को असमाधि हो जाए तो उसको अशनादि देते देखकर मुग्ध साधुओं को क्षपक मुनि के प्रति अश्रद्धा हो जाती है। और महानुभव क्षपक को भी अनेक भव की परम्परा से आहार का परिचय होने से वह रखने से किसी समय सहसा गृद्धि न प्रगट हो, क्योंकि--आराधना रूप महासमुद्र के किनारे पर पहुंचा हुआ भी तपस्वी की चारित्र रूपी नाव को किस कारण से विघ्न आ जाए उसके लिए यह जयणा है। इस तरह धर्म शास्त्रों के मस्तक का मणि समान और संवेगी मन रूपी भ्रमर के लिये विकसित पुष्पों वाली उद्यान समान संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अन्तर द्वार वाला तीसरा ममत्व विच्छेद द्वार में यह दूसरा शय्या नाम का अन्तर द्वार कहा है। शय्या
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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