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________________ श्री संवेगरंगशाला ३२८ सेवन करती और दाने को खिलाती उन दोनों को बड़ा किया। फिर किसी दिन थोड़े उड़ने की शक्ति प्राप्त होने से वे दोनों जब चपल स्वभाव से उड़कर वहाँ से अन्यत्र जाने लगे तब पंखों की निर्बलता के कारण थक जाने से अर्ध मार्ग में नीचे गिर गये । उस समय उस प्रदेश में तापस आए थे, उनमें से एक को अपने साथ आश्रम में ले गये और दूसरे को भिल्ल, चोर की पल्ली में ले गये । उसमें चोर की पल्ली में रहने वाला तोता हर समय भिल्लों के " मारो, काटो, तोड़ो, इसका मांस जल्दी खाओ, खून पीओ" इत्यादि दुष्ट वचन सुनते अत्यन्त क्रूर मन वाला हुआ और दूसरा करुणा प्रेम के अंतःकरण वाले ताप मुनि के "जीवों को न मारो, न मारो, मुसाफिर आदि की दया करो, दु:खी के प्रति अनुकम्पा करो" इत्यादि वचनों से अत्यन्त दयालु बना । इस प्रकार काल व्यतीत होते एक समय वृक्ष के ऊपर शिखर पर भिल्लों का तोता बैठा था । उस समय अति शीघ्र वेग वाला, परन्तु विपरीत शिक्षा को प्राप्त करने वाले घोड़े ने हिरण होने से बसन्तपुर नगर का निवासी कनक केतु राजा को किसी तरह वहाँ आते देखा, तब पाप विचारों से युक्त उस तोते ने कहा कि - "अरे ! भिल्लों ! दौड़ो जाते हुए राजा को शीघ्र पकड़ो और इसके दिव्य मणि, सुवर्ण तथा रत्नों के अलंकार को शीघ्र लूट लो अन्यथा तुम्हारे देखते-देखते वह भाग रहा है ।" इसे सुनकर 'जिस प्रदेश में ऐसे दुष्ट पक्षी रहते हों, उस प्रदेश का दूर से त्याग करना चाहिए ।' ऐसा सोचकर राजा शीघ्र वहाँ से वापस निकल गया और किसी पुण्योदय से तापस के उस आश्रम के नजदीक प्रदेश में पहुँचा । वहाँ तापस के तोते ने राजा को देखकर मधुर वाणी से कहा - "हे तापस मुनियों ! यह ब्रह्मचर्यादि चारों आश्रम वालों का गुरू सदृश राजा घोड़े द्वारा हरण किया यहाँ आया है, इसलिए उसकी भक्ति - उचित विनय करो ।” उसके वचन से तापसों ने सर्व आदरपूर्वक राजा को अपने आश्रम में ले गये, वहाँ भोजन आदि से उसका सत्कार किया । फिर स्वस्थ शरीर वाला और विस्मित मन वाले राजा ने तोते को पूछा कि - समान तिर्यंच जीवन है, फिर भी आचरण परस्पर विरुद्ध क्यों है ? जिससे वह भिल्लों का तोता ऐसा निष्ठुर बोलता है और तू कोमल वाणी से ऐसा एकान्त हितकर बोलता है ? तब तोते ने कहा कि- मेरी और उसकी माता एक है और पिता भी एक है, केवल उसे भिल्ल पल्ली में ले गये और मुझे भी मुनि यहाँ ले आये हैं, इस तरह हमारे में निज-निज संसर्ग जन्य यह दोष-गुण प्रगट हुआ है । वह आपने भी प्रगट रूप देखा है ।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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