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________________ २७२ श्री संवेगरंगशाला परिणाम शुद्धि को-अनुग्रह बुद्धि को त्याग नहीं करना, निश्चय सर्व विषयों में यह परिणाम शुद्धि ही रहस्य-तात्त्विक धन है । क्योंकि श्री वीर परमात्मा के आश्रित ग्वाला, खरक वैद्य तथा सिद्धार्थ का भेद रहा है, वैसे दूसरे को पीड़ा देने वाले को भी भिन्न परिणामवश से गति में भेद रहता है। श्री वीर प्रभु के कानों में कील डालकर पीड़ा करने वाले ग्वाले ने दुष्ट परिणाम से नरक गति को प्राप्त किया और उसको निकालने से महान् पीड़ा करते हये भी खरक वैद्य और सिद्धार्थ दोनों परिणाम शुद्धि होने से देवलोक में गये। हे सुन्दर ! यदि तू अति कठोर बनेगा तो परिवार का खेदकारक बनेगा और अति कोमल बनेगा तो परिवार के पराभव का पात्र बनेगा, इसलिए मध्य परिणामी बनना। निरंकुश परिवार वाला स्वामी भी स्व-पर उभय को दुःख का निमित्त बनता है, इसलिए तू आचार्य होने पर भी उनके अनुसार वर्तन करने का प्रयत्न करना । प्रायः अनुवर्तन करने से शिष्य परम योग्यता को प्राप्त करते हैं, रत्न भी परिकर्म करने से गुण के उत्कर्ष को प्राप्त करता है। परस्पर विरुद्ध होने से जल और अग्नि का, तथा जहर और अमृत का योग होने पर भी महासमुद्र के समान प्रकृति से ही अविकारी होती है, वैसे ही बाह्य निमित्त के कारण से विविध अंतरग भाव उत्पन्न होते हैं, परन्तु हे सुन्दर ! तू नित्य अनिन्दित रूपवाल ही गम्भीर बनना, अर्थात् समुद्र के समान बाह्य विषमता के समय पर भी तू गम्भीर बनना। व्याख्या में कुशल भी यह अति अद्भुत प्रभाव वाला आचार्य पद के प्रत्येक विषय में सर्व प्रकार से उपदेश (शिक्षा) देने में कौन समर्थ हो सकता है ? अतः इतना ही कहता हूँ कि जिस-जिस से शासन की उन्नति हो उसका स्वयमेव विचार करके तुझे करना चाहिये। इस तरह प्रथम गणधर के कर्तव्य द्वारा हित-शिक्षा देकर वह आचार्य सूत्रोक्त विधि से शेष साधुओं को हित-शिक्षा दे जैसे कि-भो भो देवानुप्रियों! प्रिय या अप्रिय, सर्व विषयों में निश्चय ही आप कभी राग-द्वेष के वश नहीं होना । स्वाध्याय, अध्ययन, ध्यान आदि योग में सदा अप्रमत्त और साधूजन के उचित अन्य कार्यों में भी नित्य रत बनना । यथावादी तथाकारी बोलना वैसा पालन करने वाला बनना। परन्तु निग्रन्थ प्रवचन में अल्प भी शिथिल मन वाला नहीं बनना । असार मनुष्य जीवन में बोध प्राप्त करना दुर्लभ है, ऐसा जानकर अवश्य करणीय संयम और तपश्चर्या में प्रमाद नहीं करना। श्री जैन वचनानुसारी बुद्धि वाले तुम सदा पाँच समितियों में युक्त, तीन गारव से रहित और तीन दण्ड को निरोध करने वाले बनना । आहारादि संज्ञा, कषाय और आर्त रौद्र ध्यान का भी नित्य त्याग करना और सर्व बल से दुष्ट इन्द्रियों का
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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