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________________ श्री संवेगरंगशाला २५३ निश्चय ही हास्यादि ने कषाय को, आहारादि चार संज्ञा को, रासगारव आदि तीन गारव और कृष्णादि छह लेश्या की परम उपशम द्वारा संलेखना करना चाहिये । बार-बार तप करने वाला और इससे प्रगट रूप दिखती नसें स्नायु तथा हाड़ पिंजरे वाला, और कषाय संलेखना करने वाला, इस तरह द्रव्य भाव दो प्रकार की संलेखना को प्राप्त करता है । इस प्रकार सम्यग् रूप द्रव्य-भाव उभयथा यदि कर्म विधि के योग को साधन करने वाला, संलेखना कारण महात्मा आराधना रूपी विजय ध्वजा को प्राप्त करता है। और जो अपनी मति से इस विधि से विपरीत क्रिया में प्रवृत्ति करता है वह गंगदत्त के समान आराधक नहीं होता है। उसकी कथा इस तरह है : गंगदत्त की कथा पुर, नगर और व्यापार की मण्डियों से युक्त और बड़े-बड़े पर्वत तथा बड़े देव मन्दिर से शोभते वच्छ देश में जयवर्धन नामक प्रसिद्ध नगर था। वहाँ सिद्धान्त प्रसिद्ध विशुद्ध धर्म क्रिया में दृण राग वाला और न्याय नीति से विशिष्ट बन्धुप्रिय नाम का सेठ रहता था। उसे शिष्य पुरुषों का मान्य और अति विनीत गंगदत्त नाम का पूत्र था। वह क्रमशः युवतियों के मन को हरण करने वाला यौवन बना। उसकी सुन्दर आकृति देखकर हर्षित बना स्वयंभू नामक वणिक की पुत्री के साथ उसके पिता ने सम्बन्ध किया। फिर हर्षपूर्वक गंगदत्त पाणिग्रहण करने के योग्य उत्तम तिथि-मुहूर्त दिन आने पर उसके साथ विवाह किया। केवल जिस समय उसका हाथ उसने पकड़ा उसी समय उसको दुःसह दाह रोग उत्पन्न हुआ। इससे क्या मैंने अग्नि का स्पेश किया या जहर के रस का सिंचन हुआ? इस तरह चिन्तन करती दाहिने हाथ से अपना मुख छुपाने वाली, दीन मन वाली, दोनों नेत्रों में से सतत् आँसू प्रवाह बहाती वक गरदन करके रोती हई को देखकर उसके पिता स्वयंभू ने कहा कि-हे पुत्री ! हर्ष के स्थान पर भी तू इस तरह सन्ताप क्यों करती है कि जिससे तू हँसते मुख स्नेहपूर्वक सखियों को भी नहीं बुलाती है ? और हे पुत्री ! तेरे विवाह महोत्सव को देखने से आनन्द भरपूर मन वाले स्वजन लोगों के विलासपूर्वक गीत और नृत्यों को क्यों नहीं देखती? अतः अपनी गरदन सीधी कर सामने देख । आँखों की जल कणिका को दूर कर, तेज रूप मुख की शोभा को प्रगट कर, और यह शोक को छोड़ दो ! फिर भी यदि अति गाढ़ शोक का कोई भी कारण हो तो उसे निःशंकता से स्पष्ट वचनों से कह, कि जिससे शीघ्र दूर करूं। उसने कहा-पिताजी ! हो गई वस्तु को कहने से अब क्या लाभ है ?
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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