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________________ २५२ श्री संवेगरंगशाला तप कहते हैं । अल्प आहार वालों की इन्द्रिय विषयों में आकर्षित नहीं होती है। अथवा तप द्वारा खिन्न न हो और रस वाले विषयों में आसक्ति न कर । अधिक क्या कहें ? एक-एक तप भी बार-बार उस तरह सम्यग् वसित कर कि उससे कृश होते हुए भी तुझे किसी प्रकार असमाधि न हो। इस प्रकार शरीर संलेखना की क्रिया को अनेक प्रकार से करने पर भी क्षपक अध्यवसाय शुद्धि को एक क्षण भी छोड़े नहीं । क्योंकि-अध्यवसाय की विशुद्धि बिना जो विकिष्ट तप भी करे, फिर भी उसकी कदापि शुद्धि नहीं होती है। और सविशुद्ध शुक्ल लेश्या वाला जो सामान्य-अल्प तप को करता है, तो भी विशुद्ध अध्यवसाय वाला वह केवल ज्ञान रूपी शद्धि को प्राप्त करते हैं। इस अध्यवसाय की शुद्धि कषाय से कलुषित चित्त वाले को नहीं नहीं होती है, इसलिए उसकी शुद्धि के लिए कषाय रूपी शत्र को दृढ़तापूर्वक निर्बल कर। __ कषाय में हल्का बना हुआ तू शीघ्र क्रोध को क्षमा से, मान को मार्दव से, माया को आर्जव से और लोभ को सन्तोष से अल्प करे । वह आत्मा क्रोध, मान, माया और लोभ के वश नहीं हो कि जिससे उन कषायों की उत्पत्ति के मूल में से छोड़ दे अथवा होने ही न दे । इसलिए उस वस्तु को छोड़ देना चाहिए कि जिसके कारण कषाय रूपी अग्नि प्रगट होती हो, और उस वस्तु को स्वीकार करना चाहिए कि जिससे कषाय प्रगट न हो । कषाय करने मात्र से भी मनुष्य कुछ कम पूर्व क्रोड़ि वर्ष तक भी जो चारित्र को प्राप्त किया हो उसे एक मुहूर्त में खत्म कर देता है । जली हुई कषाय रूपी अग्नि निश्चय समग्र चारित्र धन को जलाकर खत्म कर देता है और सम्यक्त्व को भी विराधना कर अनन्त संसारी बनता है। स्वस्थ बैठे पंगु के समान धन्य पुरुष के कषाय ऐसे निर्बल होते हैं कि निश्चय दूसरों द्वारा कषायों को जागृत करने पर भी उनको प्रगट नहीं होता है। कुशास्त्र रूपी पवन से प्रेरित कषाय अग्नि यदि सामान्य लोक में जलती है तो भले जले, परन्तु वह आश्चर्य की बात है कि श्री जैन वचन रूपी से सिंचन भी प्रज्जलन करता है। इस संसार में वीतराग बनने से क्लेश का हिस्सेदार नहीं होता है, उसमें क्या आश्चर्य है ? इसमें तो महाआश्चर्य है कि छद्मस्थ होने पर जो कषाय को जीतता है, इससे वह भी वीतराग समान है। क्रोधादि का निग्रह करने वाले को अनुक्रम से, क्रोध का त्याग करने से सुन्दर रूप, अभिमान छोड़ने से ऊँचे गोत्र, माया का त्याग करने से अविसंवादी, एकान्तिक सुख और लोभ का त्याग करने से विविध श्रेष्ठ लाभ होता है। इसलिये कषाय रूपी दावानल को उत्पन्न होते ही शीघ्र 'इच्छा, मिच्छा, दुक्कड़' रूपी पानी द्वारा बुझा देना चाहिए, और उसी तरह
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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