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________________ श्री संवेगरंगशाला २२७ गया। इससे अनशनादि अन्तिम आराधना के कर्त्तव्य को भूल गया । आर्त्तध्यान को प्राप्त कर शरण रहित उस नन्द को सिंह ने मार दिया, और सम्यक्त्वरूप शुभ गुणों का नाश होने से वह नन्द बाल मरण के दोष से उसी वन प्रदेश में बन्दर रूप उत्पन्न हुआ। इधर राह देखती सुन्दरी ने दिन पूरा किया, फिर भी जब नन्द वापिस नहीं आया, तब 'पति मर गया है' ऐसा निश्चय करके क्षोभ प्राप्त करती 'धस' शब्द करती जमीन पर गिर गई, मूर्छा से आँखें बन्द हो गयीं। एक क्षण मुरदे के समान निचेष्ट पड़ी रही। तब वन के पुष्पों से सुगन्ध वाले वायु से अल्प चैतन्य को प्राप्त करके दीन मुख वाली वह गाढ़ दुःख के कारण जोर से रोने लगी। हे जैनेश्वर भगवान के चरण कमल से पूजा में प्रीति वाला ! हे सद्धर्म के महान भण्डार रूप ! हे आर्य पूत्र ! आप कहाँ गए ? मुझे जवाब दो ! हे पापी दैव ! धन, स्वजन और घर का नाश होने पर भी तुझे सन्तोष नहीं हआ ! कि हे अनार्य ! आज मेरे पति को भी तूने मरण दे दिया है। पुत्री वत्सल पिताजी ! और निष्कर प्रीति वाली हे माता जी ! हा! हा ! आप दुःख समुद्र में गिरी हुई अपनी पुत्री की उपेक्षा क्यों कर रहे हो ? इस तरह चिरकाल विलाप करके परिश्रम से बहुत थके शरीर वाली, दो हाथ में रखे हुए मुख वाली अति कठोर दुःख को अनुभव करती, उसने अश्व को खिलाने के लिए वहाँ प्रियंकर नामक श्रीपुर का राजा आया। और किस तरह देखकर विचार करने लगा कि क्या श्राप से भ्रष्ट हुई यह कोई देवी है अथवा कामदेव से विरहित रति है ? कोई वन देवी है अथवा कोई विद्याघरी है ? इस तरह विस्मित मन वाला उसने पूछा कि-हे सुतनु ! तू कौन है ? यहाँ क्यों बैठी है ? कहाँ से आई है ? और इस प्रकार सन्ताप को क्यों करती है ? फिर लम्बा उष्ण निश्वास से स्खलित शब्द वाली और शोकवश आँख बन्द वाली सुन्दरी ने कहा कि-हे महा सात्त्विक ! संकटों की परम्परा को खड़े करने में समर्थ विधाता के प्रयोगवश यहाँ बैठी हूँ। मेरी दुःखसमूह के हेतुभूत यह बातें जानकर क्या लाभ है ? यह सुनकर संकट में पड़ी हुई भी 'उत्तम कुल में जन्म लेने वाली कुलीन होने के कारण यह अपना वृत्तान्त नहीं कहेगी।' ऐसा सोच कर राजा उसे कोमल वाणी से समझाकर महा मुसीबत से अपने घर ले गया और अति आग्रह से भोजनादि करवाया। उसके बाद राजा उसके प्रति अनुराग होने से, सत्पुरुष का आचरण करने से हमेशा उसका मन इच्छित पूर्ण करता है।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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