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________________ २२६ श्री संवेगरंगशाला कहा कि हे आर्य पुत्र ! मैं भी निश्चय आपके साथ जाऊँगी, क्योंकि प्रेम से पराधीन इस मेरे मन को तुम्हारे विरह में शान्त रखने में मैं शक्तिमान नहीं हूँ। ऐसा उसके कहने से अति दृढ़ स्नेहवश से आकर्षित चित्त के वेग वाले नन्द ने वह स्वीकार किया। फिर श्रेष्ठ प्रस्थान का समय आते ही उन दोनों ने श्रेष्ठ जहाज में बैठकर और प्रसन्न चित्त वाले कुशल रूप में अन्य बन्दरगाह में पहुँचे। वहां अनाज बेचा और अनेक सोना-मुहरें प्राप्त की। उसके स्थान पर अन्य अनाज लेकर समुद्र मार्ग से वापिस जाते पूर्वकृत कर्मों के विपाक से अति प्रबल पवन से टकराते शीघ्र ही सैंकड़ों टुकड़े हो गये। फिर तथाभव्यत्व के कारण मुसीबत से शीघ्र ही लकड़ी का तख्ता हाथ में आया और वे दोनों एक ही बन्दरगाह पर पहुँचे। तथा अघटित को घटित और घटित को अघटित करने में कुशल विधाता के योग में विरह से अति व्याकुल बने उन दोनों का परस्पर दर्शन मिलन हुआ। उसके बाद हर्ष और खेदवश उछलते अति शोक से सूजन हुए गले वाली मानो समुद्र के संग से लगे हुए जल बिन्दुओं के समूह मानो बिखरते हों, इस तरह अखण्ड गिरते आँसू की धारा वाली दीन सुन्दरी सहसा नन्द के गले से लिपट कर रोने लगी। तब महा मुसीबत से धीरज धारण करके नन्द ने कहा कि-हे सुन्दरी ! अत्यन्त श्याम मुख वाली, तू इस तरह शोक क्यों करती है ? हे मृगाक्षी ! जगत में वह कौन जन्मा है कि जिसको संकट नहीं आया ? और जन्म मरण नहीं हुआ हो ? हे कमल मुखी ! यदि आकाश तल के असाधारण चूड़ामणी तुल्य सूर्य का भी प्रतिदिन उदय, प्रताप और विनाश होता है। अथवा तूने श्री जैनेश्वर भगवान की वाणी में नहीं सुना कि पूर्व पुण्य का क्षय होते ही देवेन्द्र भी दुःखी अवस्था प्राप्त करते हैं ? हे सुतनु ! पेड़ छाया के समान दुःखों की परम्परा जिसको साथ ही परिभ्रमण करती है, वह कर्म के वश पड़ा हुआ। जीवों को इतना बड़ा दुःख में सन्ताप क्यों होता है ? इत्यादि वचनों से सुन्दरी को समझाकर भूख-प्यास से पीड़ित नन्द उसके साथ ही गाँव की ओर चले। फिर सुन्दरी ने कहा कि -हे नाथ ! परिश्रम से थकी हुई अत्यन्त तृषातुर, मैं यहाँ से एक कदम भी आगे चलने में असमर्थ हैं। तब नन्द ने कहा कि हे सुतनु ! तू एक क्षण यहाँ पर विश्राम ले, कि जिससे मैं तेरे लिए कहीं से भी जल ले आऊँ । उसने स्वीकार किया, अतः नन्द उसे छोड़कर शीघ्र नजदीक के वन प्रदेश में पानी खोजने गया। और दुर्भाग्यवश वहाँ यम समान भूख से अतीव्र पीड़ित फाड़े हुए महान मुख वाला और अति चपल लपलप करते जीभ वाले सिंह को उसने देखा। उस सिंह के भय से संभ्रम युक्त बन
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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