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________________ १६५ श्री संवेगरंगशाला निश्चय दस दिन जानना, तीस दिन चले तो पाँच दिन और इकत्तीस दिन चले तो तीन दिन जीता है, यदि बत्तीस दिन चले तो दो दिन और तैंतीस दिन चले तो एक ही दिन जीता रहेगा । अब अन्य भी प्रसंगानुसार कुछ और भी संक्षेप में कहता हूँ। समग्र एक दिन लगातार सूर्यनाड़ी चलती हो तो मनुष्य को कुछ उत्पात का सूचक है, और दो दिन चलती रहे तो घर में गोत्र का भय को अवगत कराता है। यदि सूर्यनाड़ी तीन दिन लगातार चले तो उस गाँव में और गोत्र में भय बतलाने वाला है, और चार दिन सूर्यनाड़ी बहे तो निश्चय स्वस्थ अवस्था वाला भी योगी के प्राण सन्देह को कहता है। और यदि पाँच दिन सूर्यनाड़ी सतत् चले तो निश्चय योगी की मृत्यु होती है, और छह दिन तक सदा सूर्यनाड़ी चले तो राजा को कष्टकारी व्याधि होगी, सात अहोरात्री सूर्यनाड़ी चलती है तो निश्चित राजा या घोड़ों का क्षय होगा, और आठ दिन हमेशा चले तो अन्तःपुर में भयजनक कहा है। और नौ दिन नित्य सूर्यनाड़ी चलती हो राजा को महाक्लेश होगा। इस तरह दस दिन तक चलती रहे तो राजा के मरण का सूचन है, और ग्यारह दिन बहती रहे तो देश, राष्ट्र के भय को बतलाता है । बारह और तेरह दिन सतत् चलती रहे तो क्रमशः अमात्य और मन्त्री के भय को कहता है । चौदह दिन तक सूर्यनाड़ी चले तो सामान्य राजा का नाश करता है, और पन्द्रह दिन तक सूर्यनाड़ी बहती रहे तो सूर्यलोक में महाभय उत्पन्न होगा, ऐसा सूचक है। यह सारा सूर्यनाड़ी के विषय में कहा है । चन्द्रनाड़ी यदि इसी तरह चले, तो भी वैसे ही जानना । और जिसको सूर्यनाड़ी चलने के कारण बिना भी निश्चय बाह्य अभ्यन्तर पदार्थों में प्रकृति की ऐसी विपरीतता होती है जैसे कि समुद्र में अत्यन्त तूफान आते उससे दिव्य दैवी शब्द सुनाई दे, किसी के आक्रोश के शब्द सुनकर प्रसन्न हो, और मित्र के सुखकर शब्द सुनकर भी हर्ष न हो। नासिका चतुर होने पर भी बुझे हुए दीपक की गन्ध नहीं जान सके, उष्णता में शीतलता की बुद्धि और शीतल में उष्णता का प्रतीत होता है। नील कान्ति वाली मक्खियों की श्रेणियों से यदि सारा शरीर ढ़क जाए और जिसका मन अकस्मात् डरावना-बेकाबू बन जाए, इत्यादि । सूर्यनाड़ी चलती उसे अन्य भी कोई प्रकृति का विपरीतता हो जाए उसकी अवश्य ही शीघ्र मृत्यु होती है। इसी तरह चन्द्रनाड़ी चलते भी यदि प्रकृति की विपरीतता अनुभव हो तो निश्चित उद्वेग, रोग, शोक, मुख्य मनुष्य अथवा स्वयं को भय होता है और मानहानि आदि भी होती है। इस तरह नाड़ी द्वार कहा।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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