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________________ श्री संवेगरंगशाला १६८ नहीं सुनने से और उससे प्रहार को नहीं करते अन्धे के शत्रुओं ने मौनपूर्वक सर्व दिशाओं से प्रहार करने लगे । तब चक्षु वाला छोटा भाई शीघ्र वहाँ आया और उसे महामुसीबत से बचाया । इस दृष्टान्त का उपनय तो यहाँ पूर्व में ही कह दिया है। अब प्रस्तुत को कहते हैं कि --- इस कारण से गृहस्थ सर्वप्रथम जावज्जीव तक का सम्यग्दर्शन उच्चारण कर फिर निरतिचार दर्शन प्रतिमा को स्वीकार करे और उसका सम्यग् परिपालन करके उन गुणों से युक्त वह पुनः दूसरी व्रत प्रतिमा को स्वीकार करे । २. व्रत प्रतिमा का स्वरूप :- इस प्रतिमा में प्राणिवध असत्य भाषण, अदत्त ग्रहण, अब्रह्म सेवन और परिग्रह, इसकी निवृत्ति रूप व्रतों को ग्रहण करे और उसके बध आदि अतिचार को छोड़कर तथा प्रयत्नपूर्वक इस धर्म श्रवण आदि कार्यों में सम्यक् सविशेष प्रवृत्ति करे एवं वह हमेशा अनुकम्पा भाव से वासित बनकर अन्तःकरण के परिणाम वाला बने । उसके पश्चात् पूर्व कहे अनुसार सम्यक्त्वादि गुणों से शोभित और श्रेष्ठ उदासीनता से युक्त वह महान् आत्मा तीसरा सामायिक प्रतिमा को स्वीकार करे । ३. सामायिक प्रतिमा : - इस प्रतिमा में ( १ ) उदासीनता, (२) माध्यस्थ, (३) संकलेश की विशुद्धि, (४) अनाकुलता, और (५) असंगताएँ, ये पाँच गुण कहे हैं। इसमें जो कोई और जैसा तैसा भी भोजन, शयन आदि से चित्त में जो सन्तोष हो उसे उदासीनता कहते हैं । यह उदासीनता संकलेश की विशुद्ध का कारण होने से श्री जैनेश्वर भगवान ने उसे सामायिक का प्रथम मुख्य अंग कहा है । अब मास्थ को कहते हैं - यह मेरा स्वजन है अथवा यह पराया है । ऐसी बुद्धि तुच्छ प्रकृति वालों को स्वभाव से ही होता है । स्वभाव से उदार मन वाले को तो यह समग्र विश्व भी कुटुम्ब है, क्योंकि अनादि अनन्त इस संसार रूप महासरोवर में परिभ्रमण करते और कई सैंकड़ों भवों का उपार्जन करने के द्वारा कर्म समूह के आधीन हुये जीवों ने इस संसार में परस्पर किसके साथ अथवा कौन-कौन से अनेक प्रकार के सम्बन्ध नहीं किये ? ऐसा जो चिन्तन या भावना हो वह माध्यस्थ है । जिसके साथ रहे, उसके और अन्य के भी दोषों को देखने पर भी क्रोध नहीं करना, वह संकलेश विशुद्ध जानना । तथा खड़े रहने में, या चलने में, सोने में, जागने में, लाभ में या हानि आदि में हर्ष - विवाद का अभाव हो वह अनाकूलता जानना । सोने या मिट्टी में, मित्र या शत्रु में, सुख और दुःख में, वीभत्स और दर्शनीय वस्तु में, प्रशंसा या निन्दा में और भी अन्य विविध मनोविकार ( राग-द्वेष) के कारण आयें तो भी सदा जो समय
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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