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________________ १६८ श्री संवेगरंगशाला अन्ध जैसे शत्रु को नहीं जीत सकता, वैसे पाप कार्यों से निवृत्त होने वाला भी स्वजन, धन भोगों को छोड़ने वाला भी और परिषह-उपसर्गों को सहन करने वाला भी मिथ्या दृष्टि मोक्ष को प्राप्त नहीं करता है। इस विषय पर अन्ध की कथा है वह इस प्रकार है : मिथ्यात्व पर अन्ध की कथा बसन्तपुर नगर में रिपु मर्दन नामक राजा राज्य करता था। उसका प्रथम पूत्र अन्ध और दूसरा दिव्य चक्ष वाला था। राजा ने उन दोनों को अध्ययन के लिए अध्यापक को सौंपा । बड़ा पुत्र अन्ध होने से अध्यापक ने उसे संगीत वाजिन्त्र, नृत्य आदि और दूसरे को धनुर्वेद आदि सारी कलाएं सिखायीं, फिर 'अपना अपमान हुआ' ऐसा मानकर अन्ध ने उपाध्याय से कहा-मुझे तू शस्त्रकला क्यों नहीं सिखाता ? उपाध्याय ने कहा-अहो महाभाग ! तू उद्यमी है, परन्तु चक्षुरहित तुझे मैं उस कला को किस तरह समझाऊँ ? अन्ध ने पुनः कहा-यदि अन्ध हूँ तो भी अब मुझे धनुर्वेद पढ़ाओ। फिर उसके अति आग्रह से गुरू ने उसे धनुर्वेद का अध्ययन करवाया। उसने भी अति बुद्धिरूपी वैभव से वह धनुर्वेद ज्ञान प्राप्त किया और शब्दवेधी हुआ। किसी प्रकार से भी लक्ष्य को वह नहीं चूकता था। इस तरह वे दोनों पुत्र कलाओं में अति कुशल हुए। एक समय वहाँ शत्रु की सेना आई, तब श्रेष्ठ सेना से शोभायमान, युद्ध करने का कुशल अभ्यासी छोटा पुत्र पिता की आज्ञा से शत्रु की सेना को जीतने चला, तब बड़े भाई विद्यमान होने पर भी छोटे भाई को ऐसा करना कैसे योग्य है ? ऐसा कहकर अति क्रोध को धारण करते मत्सरपूर्वक शत्रु सेना को जीतने जाते अन्ध को पिता ने समझाया कि-हे पुत्र ! अपनी ऐसी अवस्था में जाना योग्य नहीं है । कला में अति कुशलता है बल वाला, दो भुजा अति बलवान हैं तो भी नेत्र बिना का होने से तू युद्ध करने योग्य नहीं है । इत्यादि अनेक वचनों द्वारा कई बार अनेक प्रकार से रोका, फिर भी वह अन्धा उसका अपकार करके मजबूत बख्तर से शरीर को सजाकर गंड स्थल से मदोन्मत्त और मजबूत पलान का आडम्बर करने से भयंकर और श्रेष्ठ हाथी के ऊपर चढ़कर शीघ्र नगर से निकला और शब्द के अनुसार बाणों के समूह को फेंकते सर्व दिशाओं को भर दिया। इस प्रकार वह शत्रु सेना के साथ युद्ध करने लगा। फिर चारों ओर से शब्द के अनुसार आये हुए समूह प्रहार को देखकर, उसके कारण को जानकर शत्रुओं ने मौन धारण किया। इससे शत्रु के शब्द को
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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