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________________ श्री संवेगरंगशाला १५६ राज्याभिषेकपूर्वक पुत्र को अपनी गद्दी पर स्थापन कर स्वामित्व, मन्त्री, राष्ट्र इत्यादि सर्व पूर्व कहे अनुसार विधिपूर्वक सौंप दे । न्यायमार्ग का सुन्दर उपदेश करे और सामन्त, मन्त्री, सेनापति, प्रजा और सेवकों को तथा नये राजा को भी सर्व साधारण हित शिक्षा दे । इस प्रकार अपना कर्त्तव्य पूर्ण करके, पुत्र के ऊपर समस्त कार्यों का भार रखकर, उत्तरोत्तर अपना इष्ट श्रेष्ठ गुणों की आराधना करे । धर्म में प्रवृत्ति वाला भी और निर्मल आराधना का अभिलाषी भी यदि पूर्व में कहे अनुसार विधि से पूत्र को हित शिक्षा नहीं दे और मूर्छादि के कारण अपना धन समूह नहीं बतलाये तो केसरी को जैसे वज्र नाम का पुत्र कर्म बन्धक हुआ वैसे वह कर्म बन्धन में कारण रूप होगा। उसका प्रबन्ध इस प्रकार है :योग्य पुत्र को अधिकार नहीं देने पर वज और केसरी की कथा कुसुम स्थल नगर में अपनी अति महान् ऋद्धि से कुबेर की भी सतत् हँसी करने वाला धनसार नामक उत्तम सेठ था। उसे सैंकड़ों मानता से प्रसन्न कर देवी ने दिया हआ निरोगी शरीर वाला वज्र नामक एक पुत्र था। सारी कला को पढ़ा हुआ और यौवन वय प्राप्त करने पर उसे पिता ने महेश्वर सेठ की पुत्री विनयवती कन्या के साथ विवाह करवाया था। फिर सर्व पदार्थ बिजली के प्रकाश समान, शरद ऋतु के बादल सदृश चंचलता होने से और वासुदेव, चक्रवर्ती या इन्द्र आदि के बल को भी अगोचर बल को धारण करने वाले मृत्यु को भी नहीं रोकने से और आयुष्य कर्म का स्वभाव प्रतिक्षण अत्यन्त विनाशी होने से पुत्र को अपने स्थान पर स्थापन कर घर व्यवहार में जोड़कर धनसार मर गया। इससे पुत्र विलाप करने लगा कि-हे तात् ! हे परम वत्सल ! हे गुण समूह के घर ! हे सेवकादि आश्रित वर्ग को संतोष देने वाले! नगर निवासी लोगों के नेत्रों समान हे पिताजी! आप कहाँ गये? उत्तर तो दीजिये ! हे तात्! आपके वियोग रूपी वज्राग्नि से पीड़ित मेरी रक्षा करो! हे हृदय को सुख देने वाले! हे हितेस्वी! आप अपने इस पुत्र की उपेक्षा क्यों करते हो ? हे तात् ! आप स्वर्ग गये, उसके साथ निश्चय ही गम्भीरता, क्षमासत्य, विनय और न्याय ये पाँच गुण भी स्वर्ग में गये हैं। हे तात् ! आपके वियोग से मैं एक ही दुःख को प्राप्त नहीं करता, परन्तु प्रतिदिन असिद्ध मनोरथ वाले याचक वर्ग भी निश्चय ही दुःख को प्राप्त करते हैं। ऐसा बोलते, शोक से पीड़ित और बड़ी चीख मारते वज्र ने उसका सारा पार
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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