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________________ १५८ श्री संवेगरंगशाला लिए हे पुत्र ! परस्त्री सामने देखने में जन्मांध, दूसरों की गुप्त बात बोलने में सदा गूंगा, असत्य वचन सुनने में बहरा, कुमार्ग चलने में पंगु और सर्वे अशिस्त-गलत प्रवृत्ति करने में प्रमादी बनना । और हे पुत्र ! दूसरे को बुलाते प्रथम उसे बुलाते, सर्व अन्य जीवों को पीड़ा करने में हमेशा त्यागी, मिथ्या आग्रह से विमुख, गम्भीरता वाला, उदारता की औचित्य पूर्वक धारणा करने वाला, परिवार को प्रिय, शिष्ट लोगों के अनुसार चलने वाला, धर्म में उद्यमी, पूर्व के श्रेष्ठ पुरुषों के चरित्रों को नित्य स्मरण करने वाला और सदा उनके अनुसार आचरण करने वाला, और कूल की कीर्ति को बढ़ाने वाला, गुणीजनों के गुणों की स्तुति करने वाला, धर्मीजन केप्रति-प्रति समय प्रसन्नता को धारण करने वाला, अनर्थ पापों को छोड़ने वाला, कल्याण मित्र का संसर्ग करने वाला, सारी श्रेष्ठ पुण्य प्रवृत्ति वाला और सदा सर्व विषयों में शुद्ध निश्चय लक्ष्य वाला बनना चाहिए। * हे पुत्र ! इस तरह प्रवृत्ति द्वारा तू दादा, परदादा आदि पूर्वजों के क्रम से प्राप्त हुआ इस वैभव को पूर्वभव के तेरे पुण्य अनुसार भोग कर। सारे कुटुम्ब के भार को स्वीकार कर और इसकी चिन्ता कर, स्वजनों का उद्धार कर और स्नेही अथवा याचक या नौकर वर्ग को प्रसन्न कर । इस तरह अब समग्र कार्यों का भार स्वयं उठाकर तू मुझे स्वतन्त्र कर दे ! हे पुत्र ! अब तुझे ऐसा करना योग्य है। इस तरह व्यवहार का भार उठाने वाले तेरे पास रहकर मैं अब कल्याणरूपी पुण्यलता को सिंचन करने में जल की नीक समान सद्धर्म रूपी गण में लीन बनकर तेरे उत्तम आचरणों को देखने के लिए कुछ समय घरवास में रहूँगा, उसके बाद तेरी अनुमति से संलेखना करूँगा। घरभार नहीं स्वीकार करते भी पुत्र को दृढ़ प्रतिरूप बन्धन के बल से इस प्रकार कान्त और मनोज्ञ भाषा द्वारा सम्यक् रूप स्वीकार करवा कर भूमिगत गुप्त गाड़े हुये धन समूह को भी दिखा दे, बही-खाते में लेना देना भी बतला कर, अपने योग्य देनदार को देकर और लेने वाले से वसूली कर, स्वजन आदि के समक्ष उसे धन के व्यवहार में अधिकारी पद में स्थापन करे । कुछ धन जैन भवन में महोत्सवादि के लिए, कोई साधारण कार्य आ जाने से उसके लिये, कुछ स्वजनों के लिए, कुछ सविशेष कमजोर सन्त या सार्मिकों की सहायता के लिये, कुछ नये धर्म को प्राप्त किये आत्माओं का सन्मान के लिये, कुछ बहन, पुत्रियों के लिए, कुछ दीन-दुःखी आदि की अनुकम्पा के लिए और कुछ उपकारी मित्र और बन्धुओं के उद्धार के लिए, उत्तम श्रावक को पीछे से दुःख न हो इसके लिए अमुक धन अपने हाथ में रखे, नहीं तो उस समय पर जैन मन्दिर आदि में खर्च नहीं कर सकता है। यह सामान्य गृहस्थों की विधि कही है। राजा तो अच्छे मुहूर्त में
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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