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________________ १२२ श्री संवेगरंगशाला मस्ती वाले हे मन ! तू श्री जैन वचन द्वारा शान्त रस की प्राप्ति किए बिना, शक्ति अनुसार साधु की सुविशुद्ध क्रिया करने रूप बाह्य व्यवहार चारित्र में भी तू लेशमात्र उत्साह को भी प्राप्त नहीं करेगा तो इस तरह नाव मिलने पर भी ! मूढात्मा ! तू संसार समुद्र में डूबेगा । अथवा इस तरह तू केवल श्री जैन वचन के अर्थों को नहीं स्वीकार करेगा, इतना ही नहीं किन्तु तेरे अपने अभिप्राय से तू उससे विपरीत व्यवसाय, उल्टा उपदेश भी देगा तो हे मूढ़ हृदय निज आत्म का आधारभूत श्री जैन मत द्वारा भी तू किसी भी किसी विषय में सर्वथा एकान्त कदाग्रही बनता है, किसी समय एकान्त उत्सर्ग मार्ग में चंचल बनकर तू आकाश के अन्तिम भाग में पहुँचता है और किसी समय अपवाद में ही डूबता तू रसातल में डूबता है उत्सर्ग दृष्टि वाले तुझे अपवाद का आचरण करने वाले जीव अच्छे नहीं लगते, फिर अपवाद दृष्टि वाले तुझे उत्सर्ग में प्रवृत्ति करने वाले जीव पसन्द नहीं हैं । तथा द्रव्य क्षेत्र कालादि के अनुसार उस विषय में उत्सर्ग - अपवाद उभय मार्ग जो चलते हैं वे भी तुझे श्रेष्ठ नहीं लगते । इस तरह हे मन ! निश्चयनय में रहे तुझे व्यवहार नय में प्रवृत्ति करते और व्यवहार नय में रहे तुझे निश्चय नय में प्रवृत्ति करते अन्य जीव अच्छे नहीं लगते हैं । तथा द्रव्य क्षेत्र कालादि भावों के अनुसार उस विषय में जो दोनों नय में प्रवृत्ति करते हैं वे भी तुझे अच्छे नहीं लगते हैं । हे मन ! उत्सर्ग अपवाद आदि में समस्त नयों से युक्त यह श्री जैनमत प्रति अरूचि वाले तुझे विशुद्ध जैन मत का शुद्ध रहस्य किसी तरह प्राप्त हो सकता है ? और उपशम भाव रहित तू किसी अंश को पकडकर 'मैंने निश्चित तत्त्व को जान लिया' ऐसा स्वयं मानकर उस विषय में श्रुत निधान रूप ज्ञानी को भी तू बहुत नहीं पूछता, इसी तरह तुझे ग्लान के कार्यों की चिन्ता नहीं होती है और काल के अनुसार गुण धारण करने वाले भी गुणी के सम्बन्ध में तुझे प्रसन्नता नहीं होती है, तथा यदि तू वात्सल्य, स्थिरीकरण, उपबृंहण - प्रशंसा करता है तो भी सर्वत्र समान - पक्षपात बिना नहीं करता है, यदि करता है तो अपनी मान्यता अनुसार करता है । इसलिए तू इस प्रकार के मिथ्या आग्रह रूप चक्र को विवेकी रूप चक्र से छेदन करके सद्धर्म में सर्व इच्छा से रहित विशुद्ध राग को स्वीकार कर । हे चित्त ! यदि तुझे इस सद्धर्म में थोड़ा भी राग हो तो इतना दीर्घकाल तक महादुःखों की यह जाल नहीं । क्या तूने वह नहीं सुना । अनत्य मन वाला जीव यदि एक दिन भी दीक्षा स्वीकार करे तो वह मोक्ष को प्राप्त न करे तो भी वैमानिक देव तो अवश्य बन जाता ही है । अथवा
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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