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________________ श्री संवेगरंगशाला १२१ ऊँचे स्कंध वाला और धर्म के अर्थी जीव रूपी पक्षियों ने आश्रम बनाया है, ऐसे जो परम तत्त्वोपदेश रूपी वृक्ष, उसके ऊपर शीघ्रता रहित धीरे-धीरे क्रमशः चढ़कर जो सम्यग् ज्ञान रूपी फल को ग्रहण करता है तो तू मुक्ति का रस आस्वादन कर सकता है। क्योंकि जैसे विद्या सिद्धि वैद्य रोगों की शान्ति का परम उपदेश (उपाय) देते हैं वैसे सद्गुरु बाह्य उपचार बिना का कर्म रूपी रोग को उपशम् करने का परम उपदेश-अभ्यंतर उपाय दिया है । हे चित्त ! गुरु के उपदेश रूप इस औषध से केवल अधिगत कर्मों का ही क्षय होता है ऐसा विचार नहीं करना, परन्तु सकल दुःखों से रहित अजरामरत्व भी प्राप्त होता हे चित्त ! तू प्रयत्नपूर्वक कोई उस परमतत्त्व का चिन्तन मनन कर कि जिसका केवल विचार करते ही दीर्घकाल भी परम निर्वृत्ति (शान्ति प्राप्त) हो । हे मन ! "मैं ही बुद्धिमान हूँ, मैं ही विद्वान हैं, मैं ही सुरुपवान् हूँ, मैं ही त्यागी हँ, मैं ही शूरवीर हैं" इत्यादि अहंकार रूपी तेरी गर्मी तब तक ही है, कि जब तक तू परम तत्त्व में मग्न नहीं हुआ। हे चित्त ! हाथी के समान तू अविवेक रूपी महावत को फैक करके गर्व रूपी मजबूत स्तम्भ को भी तोड़कर पूत्र, स्त्री आदि का स्नेहरूपी मजबूत बेडियों को तोड़कर बन्धन रूपी रागादि वृक्षों को भी मूल में से उखाड़ कर, धर्म रूपी वन में विहार करता है कि जिससे परम शान्ति को प्राप्त करता है। हे चित्त ! दिव्य भोजन के विविध रसों को स्पर्श करता हआ चम्मच जैसे स्वयं उस रसों को नहीं स्वाद कराता, केवल गर्म होता है, वैसे उस आगम के अनुभव बिना का तू भी दूसरों को श्रद्धा प्रगट कराने के लिए यह प्रवचन साक्षात् श्री जिनेश्वर भगवान ने कहा है, यह अमुक गणधरों ने कहा है, यह अमूक उनके शिष्यों ने कहा है, यह अमूक चौदह पूर्वी ने कहा, अमुक प्रत्येक बुद्ध ने कहा है और यह अमुक के पूर्व श्री जिनेश्वरों ने कहा है इत्यादि चिन्तन से केवल स्वयं खेद या श्रम को ही प्राप्त करता है। अथवा कडछी तो उन रसों से वासित भी होती है और भेदन भी होती है। हे मूढ़ हृदय ! तू तो श्री जैन वचन को आचरण करते भी वासित नहीं होता और भेदित भी नहीं होता, त महान ऋषियों के सुभाषितों को नित्य अनेक बार बोलता है, सुनता है, अच्छी तरह विचार करता है, और उसके परमार्थ को भी जानता है, समझता है फिर भी तु प्रशम रस का अनुभव नहीं करता वैसे संवेग और निर्वेद का भी अनुभव नहीं करता तथा एक मुहुर्तमात्र भी उसके भावार्थ के परिणाम वाला नहीं बनता है। इसलिए प्रमाद रूपी मदिरा की
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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