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________________ ११४ श्री संवेगरंगशाला पराग का प्रतिदिन आयुष्य का पान करते हुए भी अतृप्त, गूढ़ गति वाला, जगत के सर्व जीवों में तुल्य प्रवृत्ति वाला, कालरूपी भ्रमर यहाँ भ्रमण कर रहा है। हे मन ! तूझे निर्धन धन की इच्छा होती है, धनी को राजा बनने की, राजा को चक्रवति बनने या इन्द्र आदि पदवी प्राप्ति करने की इच्छा होती है और उसे मिल जाये तो भी उसे तृप्ति नहीं होती है। शल्य के समान प्रवेश करते और स्वभाव से ही प्रतिदिन पीड़ा करने वाले काम, क्रोध आदि तेरे अन्तरंग शत्रु हैं। जो हमेशा देह में रहते ही हैं उसका उच्छेदन करने की तो हे चेतन मन ! तेरी इच्छा भी नहीं होती और तू बाह्य शत्रुओं के सामने दौड़ता है, उससे लड़ता है, अहो ! महामोह यह कैसा प्रभाव ? जब तू बाह्य शत्रओं में मित्रता और अंतरंग शत्रुओं के प्रति शत्रुता करेगा तब हे हृदय ! तू शीघ्र स्वकार्य को भी सिद्ध कर देगा। हे हृदय ! प्रारम्भ में मधुरता और परिणाम में कटु विषयों में आसक्ति नहीं कर । क्योंकि भाग्य के वश से नाश होने वाले वह उस भोगी को अति तीक्ष्ण दुःखों को देता है । मुख मधुर और अन्त विरस विषयों में यदि तू प्रथम से ही राग नहीं करेगा तो हे हृदय ! फिर भी तू कदापि संताप को नहीं करेगा । विषयों बिना सुख नहीं है और वह विषय भी बहुत कष्ट से मिलता है तो हे हृदय ! तू उससे विमुख विषय बिना का अन्य कोई सुख है तो उसका चिन्तन कर । हे चित्त ! जैसे तू विषयों को प्रारम्भ में मधुर देखता है वैसे यदि विपाक को भी देखे और विचार करे तो तू इतनी विडम्बनायें कभी भी प्राप्त नहीं करे। हे हृदय ! जहर समान विषयों की इच्छा करके तू संताप कैसे धारण कर सकता है ? और उसमें ऐसा कोई भी चिन्तन है कि जिससे परम निवृत्ति हो सके ? और विषयों की आशा रूपी छिद्र द्वारा तो ज्ञान से प्राप्त किया गुण भी नाश होता है, इसलिए, हे मूढ़ हृदय ! उस गुणों को स्थिरता या रक्षा के लिए तू उस आशा रूप छिद्र का त्याग कर । और हे हृदय ! विषयों की आशा रूपी वायु से उड़ती हुई रज से मलीन हुआ और निरंकुश भ्रमण करता तू अपने साथ पैदा हुई इन्द्रियों के समूह से भी क्यों लज्जा नहीं करता है। हे मन कुम्भ ! काम के बाण से जर्जरित होने के बाद तेरे में कर्म मल को नाश करने वाला और संसार के संताप को क्षय करने वाला सर्वज्ञ परमात्मा का वचन रूप जल टिकेगा नहीं। यदि वह जैन वचन रूपी जल किसी प्रकार भी तेरे में स्थिर हो जाये तो वे तेरे कषायों के दाह को शान्त कैसे करेगा ? अथवा यह जो तेरी अविवेक रूपी मलीन गांठ को भी कैसे खत्म करेगा? हे हृदय सागर ! बड़े दुःखों के समूह रूपी मेरू पर्वत रूप मथनी से तेरा मंथन करने पर भी तेरे में विवेक रूपी रत्न
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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