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________________ श्री संवेगरंगशाला ११३ क्या प्रयोजन है ? हे हृदय ! अनार्य सदृश जरा से जीर्ण होती तेरी यह शरीर रूपी झोपड़ी का भी विचार नहीं करता है ? अरे ! तेरे ऊपर यह महामोह का प्रभाव कैसा है ? हे मूढ़ हृदय ! यदि लोक में जरा मरण, दारिद्र रोग, शोक आदि दुःख का समूह प्रगट है वहाँ भी तू वैराग्य क्यों धारण नहीं करता है ? हे मन ! शरीर में श्वास के बहाने गमनागमन करते जीव को भी क्या तू नहीं जानता है ? क्या तू अजरामर के समान रहता है ? हे मन ! मैं कहता हूँ कि-राग द्वारा तुझे सुख की आशा से बहुत काल तक परिभ्रमण करवाया है, अब यदि तू सुख के स्वरूप को समझता हो तो आशा को छोड़ और राग के उपशमभाव का सेवन कर, वही तुझे इष्ट सुख प्राप्ति करवायेगा। हे मन ! बचपन में अविवेक द्वारा, बुढ़ापे में इन्द्रियादि की विकलता से, धर्म की बुद्धि के अभाव से तेरा बहुत ही नरभव निष्फल गया है। हे मन ! नित्यमेव उन्माद में तत्पर काम का एक मित्र, दुर्गति का महा दुःखों की परम्परा का कारण, विषय में पक्षपात करने वाली बुद्धि वाला, मोह की उत्पत्ति में एक हेतु, उन विवेकी रूपी वृक्ष का कन्द, गर्वरूपी सर्व को आश्रय देने वाला चन्दन वृक्ष समान और सम्यग् ज्ञानरूपी चन्द्र के विष को ढांकने में गहन बादलों के समूह सदृश यह तेरा यौवन भी प्रायः सर्व अनर्थों के लिए ही हुआ किन्तु धर्म गुण का साधक नहीं बन सका और हे हृदय ! इस घर का कार्य किया, इसको करता हूँ और यह वह कार्य करेगा-ऐसा हमेशा व्याकुल रहते तेरे दिन निरर्थक जा रहे हैं, पुत्री की शादी नहीं की, इस बालक को पढ़ाया नहीं है, वे अमुक मेरे काय आज भी सिद्ध नहीं हुए हैं, इस कार्य को मैं आज करूँगा, इसको फिर कल करूँगा और अमुक कार्य को उस दिन, पाक्षिक या महीने के बाद अथवा वर्ष में करूँगा । इत्यादि हमेशा चिन्ता करने से सदा खेद करते हे मन ! तुझे अल्प भी शान्ति कहाँ से होगी ? और हे मन ! कौन मूढ़ात्मा स्वप्न तुल्य इस जीवन में, इसको अभी ही करूँ, इसको करने के बाद इसे करूँगा इत्यादि कौन चिन्तन करे ? हे मनात्मा ! तू कहाँ-कहाँ जायेगा और वहाँ जाने के बाद तू क्या-क्या करके कृतार्थ होगा ? इसलिए स्थिरता को प्राप्त कर और स्थिरता से कार्य कर क्योंकि गति का अन्त नहीं है और कार्यों की प्रवृत्ति का अन्त नहीं है, अर्थात् का अन्त नहीं प्रवृत्ति है अतः निवृत्ति का स्वीकार कर । हे चित्त ! यदि तू नित्यमेव चिन्ता की परम्परा में तत्पर रहेगा तो खेदजनक बात है कि तू अत्यन्त दुस्तर समुद्र में गिरेगा। हे हृदय ! तू क्यों विचार नहीं करता ? कि जो यह ऋतुओं रूपी छह पर वाला, विस्तार युक्त कृष्ण शुक्ल दो पक्ष वाला, तीन लोक रूपी कमल के
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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