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________________ श्री संवेगरंगशाला ७६ कुलबालक मुनि की कथा चरण करण आदि गुणमणि के प्रादुर्भाव के लिए रोहण चल समान, उत्तम संघयण वाले, मोहमल्ल को जीतने वाले, महान् महिमा से किसी द्वारा पराभव नहीं होने वाले और अनेक शिष्य परिवार युक्त संगमसिंह नामक आचार्य थे। उनका प्रकृति से उद्धत स्वभाव वाला एक शिष्य था। वह अपनी बुद्धि अनुसार दुष्कर तपस्या आदि करता था, परन्तु कदाग्रह के कारण आज्ञानुसार चारित्र को पालन नहीं करता था। उसे आचार्य जो प्रेरणा करते थे कि-कठिनाई से समझ सके ऐसे हे दुष्ट ! इस तरह शास्त्र विरुद्ध कष्ट सहन करने से आत्मा को निष्फल सन्ताप क्यों कर रहा है ? आज्ञा पालन में ही चारित्र है, उस आज्ञा का खंडन होने के बाद समझ कि क्या शेष रहता है ? अर्थात् आज्ञा बिना की प्रत्येक प्रवृत्ति विराधना रूप है और आज्ञा का उल्लंघन करके तू शेष अनुष्ठान करता है वह किसकी आज्ञा से करता है ? ऐसा उपदेश देने से गुरु के प्रति वह उग्र बैरभाव रखने लगा। किसी दिन उसे अकेले को साथ लेकर गुरु महाराज सिद्ध शिला के ऊपर वंदन करने को एक पर्वत ऊपर चढ़े, और वहाँ चिरकाल नमस्कार करके धीरे-धीरे उतरने लगे। तब उस दुविनोत ने विचार किया कि वास्तविक यह अच्छा मौका मिला है, कि जिससे दुर्वचनों का भण्डार रूप इन आचार्य को मैं यहीं मार दूं। यदि इस समय मैं असहायक होने पर भी इसकी उपेक्षा करूँगा तो जिन्दगी तक दुष्ट वचनों द्वारा मेरा तिरस्कार होगा। ऐसा सोचकर आचार्य श्री जी को मारने के लिए पीछे चलते उसने बड़ी पत्थर की शिला को धक्का देकर गिराई, और किसी तरह से गुरु जो ने उसे देख लिया और उससे शीघ्र हट कर आचार्य श्री ने कहा-हे महादुराचारी ! गुरु का शत्रु ! यह अत्यन्त महापाप में तू क्यों उद्यम करता है ? लोक व्यवहार को भी क्या तू नहीं जानता कि जिसके उपकार के बदले में समग्र तीन लोक का दान भी अल्प है, ऐसे उपकार को तू मारने की बुद्धि करता है ? कई शिष्य केवल तृण दूर करने में भी उपकार मानते हैं और दूसरे तेरे समान दीर्घ समय से अच्छी तरह से पालन करने पर भी मारने की तैयारी करता है। अथवा कुपात्र का संग्रह करने से निश्चय ऐसा ही परिणाम आता है, महाजहरी सर्प के साथ मित्रता कभी नहीं हो सकती । हे पापी ! इस प्रकार के महान् पापकर्मों से सुकृत पुण्य को मूल में से खत्म कर देता है और इससे सर्वज्ञ धर्म पालन करने में अत्यन्त अयोग्य है तेरे इस पाप से निश्चय ही स्त्री के सम्बन्ध से चारित्र का त्याग होगा, ऐसा श्राप देकर आचार्य श्री जस तरह गये उसी तरह वे वापिस आए।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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