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१०. गुरुअब्भुटाणेणं:- वडील प्राहुणा साधु या गुरुभगवन्त घर पधारें और उस समय एकाशना कर रहे हों फिर भी विनय मर्यादा को ध्यान में रखकर शीघ्र खड़े होकर सम्मान करना चाहिये । जिससे अब्भुट्ठाणेणं याने खड़े होनेपर भी एकाशन का भंग नहीं होता । और ये आगार विनयधर्म की प्रधानता दर्शाता है । इसी कारण इस आगार का नाम गुरु अब्भुट्ठाणेणं रखा गया है। ... ११. पारिद्वावणिया गारेणं :- विधिपूर्वक गोचरी लेकर आये हों, और अन्य मुनिगण के विधिपूर्वक आहार लेने के बाद भी यदि कुछ बचगया हो तो वो आहार परठवने के योग्य (= सर्वथा त्याग करने के योग्य) गिना जाता है । यदि परठवने में अनेक दोष हैं | ऐसा जानकर गुरु महाराज यदि उपवासवाले या एकाशनवाले मुनि को एकाशना करलेने
के बाद भी वापरने की आज्ञा करें, तो उस मुनि को फिरसे आहार लेने पर भी उपवास तथा | एकाशनादि के पच्चक्खाण का भंग नहीं गिना जाता है, इसी कारण से पारिहावणियागारेणं | आगार रखागया हैं। :: इस आगार में प्रत्याख्यान वाले मुनि को गुरु की पवित्र आज्ञा का ही पालन करना है, लेकिन आहार के ऊपर किंचित् मात्रभी भोलुपता नही रखनी है । तथा गुरु भगवन्त ने | आहार लेने की आज्ञा की, अच्छा हुआ वर्ना आज एकाशन बहुत मुश्किल से होता । इस
प्रकार भी आहार की अनुमोदना नहीं करनी चाहिये । 'ये आगार सिर्फ मुनि को ही होता है (यहाँ इतना विशेष है कि चउहार के प्रत्याख्यान वाले मुनि को परहवने योग्य आहार में अन्न व पानी दोनों ही बचे हों तो लेना कल्यता है । वर्ना नहीं कल्पता । तथा जिस मुनिने तिविहार उपवास या एकाशना किया हो तो उसे पानी पीने की प्रथम से ही छूट है अतः मात्र आहार ही बचा हो फिरभी लेना कल्पता है । कारण कि बचा हुआ आहार ग्रहण करने के बाद तिविहार से पानी की छूट के कारण पानी से मुखशुद्धि कर सकते हैं।) ये आगार एकाशन में श्रावक को भी उच्चराया जाता है । प्रत्याख्यान का आलापक खंडित न हो इसके लिए है । लेकिन ये आगार श्रावक को होता है ऐसा नहीं । | १. यह आगार सिर्फ खडे होनेका है, लेकिन चलकर सामने जाने के लिए नहीं है। | २. यह विधिसे ग्रहण किया और विधिसे भुक्त (खाया) | विधिसे ग्रहण किया और अविधिसे भुक्त (खाया) अविधिसे ग्रहण किया और विधिसे भुक्त (खाया) अविधिसे ग्रहण किया और अविधिसे भुक्त (खाया)
ये चार भांगा में से पहला भांगावाला आहार इस आगार में कल्पता है। शेष तीन भांगा का आहार कल्पता नहीं है।
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