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________________ अवतरणः- वंदन करने वाला शिष्य जिन छ हकिकतों से गुरु को वंदन करता है, उसको शिष्य के ६ स्थान कहा जाता है। उसका १९ वां द्वार इच्छा य अणुन्नवणा, अव्वाबाहं च जत्त जवणा य । अवराहखामणावि अ, वंढण दायस्स छडाणा ॥ ३३ ॥ शब्दार्थ:- अणुन्नवणा=अनुज्ञापन (आज्ञा ), अव्वाबाहं - अव्याबाध (= सुखशाता), जत्त=यात्रा (=संयमयात्रा), जवणा-यापना (देहसमाधि) अवराह- अपराध गाथार्थ:- ईच्छा, अनुज्ञा, अन्याबाध, संयमयात्रा, देहसमाधि और अपराधखामणा ये वंदन करने वाले शिष्य के ६ स्थान है | ॥ ३३ ॥ विशेषार्थ:- प्रथम 'इच्छामि खमासमणो वंदिरं जावणिज्जाए निसीहिआए' इन पाँच पदों के द्वारा शिष्य गुरु को वंदन करने की ईच्छा दर्शाता है। अतः ईच्छा ये शिष्य का प्रथम वंदन स्थान कहलाता है। अभिलाषा व्यक्त करने के बाद 'अणुजाणह मे मिउग्गह=' हे भगवंत 'मित अवग्रह में प्रवेश करने की अनुमति दिजीये, इन तीन पदों द्वारा शिष्य ने अवग्रह में प्रवेश करने की अनुज्ञा मांगी है। अतः शिष्य का अनुज्ञा ये दूसरा वंदनस्थान कहलाता है। 'निसीहि से वइक्कतो' तक के १२ पदों द्वारा शिष्यने गुरु को वंदन करते हुए अन्याबाध सुखशाता पूछी है। अतः अव्याबाध नाम का तीसरा वंदन स्थान समजना । ' जत्ता भै' इन दो पदों द्वारा शिष्य ने गुरु से पूछा है कि "हे भगवन्त" आपकी संयमयात्रा सुखपूर्वक चल रही है न? इस प्रकार पूछा है। अतः यात्रा नामक चौथा वंदनस्थान समजना । 'जवणिज्जं च भै' इन तीन पदों से शिष्य ने गुरु से यापना-याने शरीर की समाधि (सुखशाता) पूछी है। अतः यापना नामक पांचवाँ वंदनस्थान समजना । 'खामेमि खमासमणो देवसिअं वइक्कम' इन चार पदों से शिष्य दिन में हुए अपराधों की क्षमा याचना करता है। अतः अपराध क्षमापना नामका शिष्यका छठां वंदनस्थान हुआ। (इस के बाद के पाठ में विशेष अपराध की क्षमायाचना करता हैं, लेकिन इस क्षमायाचना को अन्यत्र कही पर भी नही गिनी है) १ मित= गुरु के देह प्रमाण वाला अर्थात ३॥ हाथ, अवग्रह चारो दिशाओ का क्षेत्रभाव उसे मितावग्रह कहा जाता है। 126
SR No.022300
Book TitleBhashyatrayam Chaityavandan Bhashya, Guruvandan Bhashya, Pacchakhan Bhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmityashsuri
PublisherSankat Mochan Parshwa Bhairav Tirth
Publication Year
Total Pages222
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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