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________________ (२५९) भाषार्य-जो मुनि दुःसह उपसर्गका जीतनहारा आतापसीत वातकरि पीडित होय खेदकुं प्राप्त न होय, चिचमें क्षोम क्लेश न उपजे तिस मुनिके कायक्लेश नामा तप होय है। भावार्थ-महामुनि ग्रीष्मकालमें तौ पर्वतके शिखर आदि विष जहां सूर्यके किरणिनिका अत्यन्त आताप होय तलें भूमि शिलादिक तप्तायमान होय तहां अातापनयोग धारे हैं. बहुरि शीतकालमें नदी आदिके तटविष चोडे जहां अति शीत पडै दाह वृक्ष भी दाहे जांय तहां खडे हैं. बहुरि चतुर्मासमें वर्षा वरसै प्रचंड पवन चाले दंशमशक का ऐसे समय वृक्षके तले योग धारे हैं. तथा अनेक विकट आसन करे हैं ऐसे अनेक कायक्लेशके कारण मिलावे हैं अर सा. म्यभावः चिग नाहीं हैं. जाने अनेक प्रकारके उपसर्गके जीतनहारे हैं तातै चिचविषै जिनके खेद नाहीं उपज है. अपने स्वरूपके ध्यानमें लगे हैं तिनके कायक्लेशनामा तप होय है. जिनके काय तथा इंद्रियनिसू ममत्व होय है तिनिके चिचमें क्षोभ हो है ए मुनि सर्वते निस्पृह व हैं तिनकू काहेका खेद होय ? ऐसे छहप्रकर वाह्यतपका निरूपण किया, ___ आगे छहप्रकार अंतरंग तपका व्याख्यान करै हैं ताँ प्रथम ही प्रायश्चित्तनामा तपकू कहै हैं,दोसं ण करेदि सयं अण्णं पि ण कारएदि जो तिविहं । कुवाणं पि ण इच्छइ तस्स विसोही परो होदि ४४९ भाषार्थ-जो मुनि माप दोष न करै अन्य पास दोष
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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