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________________ (२५८) अण्णत्थ वि एयंते तस्स वि एदं तवं होदि ॥४४७॥ भाषार्थ-जो महामुनि पूजा आदिविषै तौ निरपेक्ष है अपनी पूना महिमादिक नाहीं चाहै है, बहुरि स्वाध्याय ध्यान आदि जे अंतरंग तर तिनिविष प्रवीण है, ध्यानाध्य. यनका निरन्तर अभ्यास राखे है, बहुरि उपशमशील कहिये मंद कषायरूप शान्तपरिणाम ही है स्वभाव जाका, बहुरि महा पराक्रमी है, क्षमादिपरिणाम युक्त है, ऐसा महामुनि मसाण भूमिविषै तथा गहन वनविष तथा जहां लोक न प्रदत्त, ऐसे निर्जनस्थानविषै तथा महाभयानक उद्यानविषै तथा अन्य भी ऐसा एकान्त स्थानविषै जो वसै ताके निश्चय यह विविकशय्यासन तप होय है. भावार्थ-महामुनि विविक्तशय्यासन तप करै है सो ऐसें एकान्त स्थान में सोवे बैठे है जहां चित्तके क्षोभके करनेहारे कछू भी पदार्थ न होय. ऐसे सूने घर गिरिकी गुफा वृक्ष के मूल तथा स्वयमेव गृहस्थानके बणाये उद्यानमें वस्तिकादिक देव मन्दिर तया मसाणभूमि इत्यादिक एकांत स्थानक होंय तहां ध्यानाध्यपन करे है जाते देहतै तौ निर्ममत्व है विषयनित विरक्त है, अपने आत्मस्वरूपविषै अनुरक्त है सो मुनि विविक्तः शय्यासनतपसंयुक्त है ॥ ४४६-४४७॥ आगे कायक्लेशतपकू कहै हैं,दुस्सहउवसग्गजई आतावणसीयवायखिण्णो वि । जो ण वि खेदं गच्छदि कायकिलेसो तवो तस्स ॥
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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