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________________ (२३१) .. भाषार्थ-जो मुनि स्त्रीनिकी संगति न करे, तिनिका रूपडूं नाही निरखे, बहुरि कामकी कथा आदि शब्दकरि स्मरणादिकरि रहित होय ऐसें नवधा कहिये मनवचनकाय, कृत कारित अनुमोदनाकरि करै तिस मुनिके ब्रह्मचर्य धर्म होय है. भावार्थ-इहां ऐसा भी जानना जो ब्रह्म आत्मा है ताविषै लीन होय सो ब्रह्मचर्य है । सो परद्रव्यविषे प्रात्मा लीन होय तिनिविषै स्त्रीमें लीन होना प्रधान है जाते काम मनविष उपजै है सो अन्य कषायनितें भी यह प्रधान है । भर इस कामका आलंबन स्त्री है सो याका संसर्न छोडे अपने स्वरूपविषै लीन होय है । तात याकी संगति करना स निरखना, याकी कथा करनी, स्मरण करना, छोड़े ताके ब्रह्मचर्य होय है । इहां टीकामें शीलके अठारह हजार भेद ऐसे लिखे हैं। अचेतन स्त्री-काष्ट पाषाण अर लेपकृत, तिनिक मनवचनकाय अर कृत कारित अनुमोदना इनि छह गुणे अठारह होय । तिनिकं पांच इंद्रियनित गुणे निव्वे होय । द्रव्य पर भावतें गुणे एकसो अस्सी ( १८०)होंग क्रोध मान माया लाभ इनि च्यारित गुणे सातसौ वीस ७२० होय । बहुरि चेतन स्त्री देवांगना मनुष्यणी तियेचणी तिनि कं कृत कारित अनुमोदनातै गुणे नव (९) होय, विनिक मन वचन काय इनितीन गुणे सचाईस २७ होंय, पांच इन्द्रियनित गुणे एकसौ पैंतीस १३५ होय, द्रव्य पर भावकरि गुणे दोयसौसत्तरि २७० होय, इनिक च्यारि संज्ञा आहार भय मैथुन परिग्रहत गुणे एक हजार अस्सी १०८०
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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