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________________ (२१२) भाषार्थ-जो श्रावक पाप के मूल जे गृहस्य के कार्य ति. निविषै अनुमोदना न करै. कैसा हूवा संता जो भवितव्य है सो होय है ऐसे भावना करता संता सो अनुमोदनविति प्रतिमाधारी श्रावक है. भावार्थ-गृहस्थ के कार्यके आ. हारके निमिच पारम्भादिककी भी अनुमोदना न करै. उ. दासीन हवा घरमें भी बैठे. बाह्य चैत्यालय मठ मंडपमें भी बैठे. भोजनकौं घरका तथा अन्य श्रावक बुलावै ताकै भोजन करि आवै. ऐसा भी न कहै जो हमारे ताई फलाणी वस्तु तयार कीज्यो. जो कुछ गृहस्थ जिमा सोही जीमि आवै सो दसमी प्रतिमाका धारी श्रावक होय है ॥ ३८८ ॥ जो पुण चिंतदि कज्जं सुहासुहं रायदोससंजुत्तो। उवओगेण विहीणं स कुणदिपावं विणा कज्ज ३८९ भाषार्थ-जो विना प्रयोजन रागद्वेषकरि संयुक्त हवा सन्ता शुभ तथा अशुभ कायकौं चितवन करै है, सो पुरुष विना कार्य पाप उपजावै है. भावार्थ-आप तो त्यागी भया फेरि विना प्रयोजन गृहस्थके शुभकार्य पुत्रजन्ममाप्ति विवाहादिक अर अशुभकार्य काहू कौं पीडा देना मारना बांधना इत्यादि शुभाशुभ कार्यनिकौं चितवन करै रागद्वेष परिणाम करे तो निरर्थक पाप उपजावैताकै दसमी प्रतिमा कैसे होय ? तीसू ऐसी बुद्धि रहै जो जैसी तरह भवितव्य है त होयगः जैसे आहार मिलणा है तैसें मिलि रहैगा. ऐसे परिणाम हैं अनुमतित्याग पल है. ऐसे बारह भेदमें ग्यारहवां भेद कहा।
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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