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________________ ( २११ ) रूप है ऐसें मानता संता मानन्द सहित छोडे है सो परिग्रहका त्यागी श्रावक होय है. भावार्थ - अभ्यंतरका ग्रंथमें मिथ्यात्व अनंतानुबंधी प्रत्याख्यानावरण कषाय तौ पहिले लुट गये हैं, बहुरि प्रत्याख्यानावरण अर तिसहीके लार लागे हास्यादिक र वेद तिनिकों घटा है, बहुरि बाह्यके धनधान्य यादि सर्वका त्याग करें है. बहुरि परिग्रहके त्या• बडा आनन्द मान है. जातै तिनिकै सांचा वैराग्य हो है तिनिके परिग्रह पापरूप अर बड़ी आपदा दीखे है. तातें त्याग कर बडा सुख माने है ॥ ३८६ ॥ - बाहिरगंथविहीणा दलिद्दमणुआ सहावदो होंति । अभंतरगंथं पुण ण सक्कदे को वि छंडेदुं ॥ ३८७ ॥ भाषार्थ - बाह्य परिग्रहकरि रहित तौ दरिद्री मनुष्य स्वभावही होय है. याके त्यागमें अचिरज नाहीं. बहुरि - *यंतर परिग्रहकू कोई भी छोडने कूं समर्थ न होय है. भावार्थ, जो अभ्यंतर परिग्रहकूं छोडै है ताकी बडाई है, अभ्यंतरका परिग्रह सामान्यपणैौ ममत्व परिणाम है सो याकौं छोडे सो परिग्रहका त्यागी कहिये. ऐसें परिग्रहत्याग प्रतिमाका स्वरूप काा. प्रतिमा नवमी है बारह भेदनिमें दशमा भेद है || आगे अनुमोदनविरति प्रतिपाकौं कहे हैं, - जो अणुमणं कुणदिगिहत्थकज्जेसु पावमूलेसु | भवियव्वं भावतो अणुमणविरओ हवे सो दु ॥ ३८८ ॥
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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