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________________ (२०१) वारसवएहिं जुत्तो जो संलेहण करेदि उवसंतो । सो सुरसोक्खं पाविय कमेण सोक्खं परं लहदि ३६९ भाषार्थ-जो श्रावक बारहवूननिकरि सहित हवा अंत समय उपशम भावनिकरि युक्त होय सल्लेखना करै है सो स्वर्गके सुख पायकरि अनुक्रमतें उत्कृष्ट सुख जो मोक्षका सुख सो पावै है । भावार्थ-सल्लेखना नाम कषायनिका अर कायके क्षीण करनेका है सो श्रावक वारह व्रत पाले. पीडें परणका समय जाण तब पहली सावधान होय सर्व वस्तुसूं ममत्व छोडि कषायनिकू क्षीणकरि उपशम भावरूप मंद कपायरूप होय रहै । अर कायकू अनुक्रमतें ऊणोदर नीरस आदि तपनिकरि क्षीण करै । पहले ऐसे कायकू क्षीण करें तौ शरीरमें मलके मूत्रके निमित्त जो रोग होय हैं वे रोग न उपजै । अंतसमै असावधान न होय । ऐसे सल्लेखना करे अंतसमय सावधान होय अपने स्वरूपमें तथा अरहंत सिद्ध परमेष्ठीका स्वरूप चितवनमें लीन हूवा तण व्रतरूप संवररूप परिणाम सहित हूवा संता पर्यायकू छोडै तो स्वर्गके सुखनिकू पावै । बहुरि तहां भी यह बाछा रहै जो मनुष्य होय व्रत पालू ऐसे अनुक्रमते मोक्ष सुखकी प्राप्ति होय है। एकं पि वयं विमलं सहिद्री जह कुणेदि दिढचित्तो। तो विविहरिद्धिजुत्तं इंदत्तं पावए णियमा ॥ ३७.।। भाषार्थ-जो सम्यग्दृष्टी जीव हदचित्त हूवा संता एक
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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