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________________ ( २०० ) बासादिकयपभाणं दिणे दिणे लोहकामसमणत्थं । सावज्जवज्जणटुं तस्स चउत्थं वयं होदि ॥ ३६८ ॥ 1 भाषार्थ - जो श्रावक पहलै सर्व दिशानिका परिमाण कया था तिनका फेरि संवरण करै, संकोचे, बहुरि तेसें ही पूर्व इन्द्रियनिका विषयनिका परिमाण भोगोपभोग परिमाण कीया था तिनि फेरि संकोचे । कैसें सो कहे हैं ? वर्ष आदि तथा दिन दिन प्रति कालकी मर्यादा लीये करै । ताको प्रयोजन कहै हैं - अन्तरंग तौ लोभकषाय अर काम कहिये इच्छा ताके शमन कहिये घटावने के अर्थ तथा बाह्य पाप हिसादिक के वर्जने के अर्थ करें, तिस श्रावककै चौथा देशावकाशिक नामा शिक्षाव्रत होय है। भावार्थ- पहले दिग्वि रति जतमें मर्यादा करी थी सो तो नियमरूप थी । अब इहां तिसमें भी कालकी मर्यादा लीये घर हाट गांव आदि तांईकी गमनागमनकी मर्यादा करै तथा भोगेश्भोग व्रतमें यमरूप इन्द्रियविषयनिकी मर्यादा करी थी तःमें भी कालकी मर्यादा लीये नियम करै । इहां सत्तरा नियम कहे हैं तिनिकूं पालै । प्रतिदिन मर्यादा करबो करै, यामें लोभका तथा तृष्णा पांछाका संकोच होय है, बाघ हिंसादि पापनिकी हाणि होय है । ऐसें प्यार शिक्षाव्रत कहे सो ए प्यारों ही श्रावक अणुव्रत के यत्नतें पालनेकी तथा महाव्रतके पालने की शिक्षारूप हैं ।। ३६७-३६८ ॥ आगे तसल्लेखनाकं संक्षेपकरि कहै हैं,
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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