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________________ (१९१) आजीविका ही श्रेष्ठ है. जामें व्रतभंग होय सो काहेकू करें? व्रतकी रक्षा ही करनी ॥ ३४८ ॥ आगें इस अनर्थदंडके कथनकू संकोचे हैं,एवं पंचपयारं अणत्थदंडं दुहावह णिच्चं । जो परिहरेइ णाणी गुणव्वदी सो हवे विदिओ ३४९ __ भाषार्थ-जो ज्ञानी श्रावक इसपकार अनर्थदंडकू दुःखनिका निरन्तर उपजावनहारा जाणि छोडै है सो दूसरा गुणव्रतका धारी श्रावक होय है. भावार्थ-यह अनर्थदंडका त्यागनामा गुणवत अणुव्रतनिका बड़ा उपकारी है नाते श्रावकनिकू अवश्य पालना योग्य है ॥ ३४९॥ आगे भोगोपभोगनामा तीसरा गुणतकू कहै हैं,-- जाणित्ता संपत्ती भोयणतंबोलवत्थुमाईणं । जं परिमाणं कीरदि भोउवभोयं वयं तस्स ॥ ३५०॥ भाषार्थ-जो अपनी सम्पदा सामर्थ्य जाणि भर भोजन तांबूल वस्त्र आदिका परिमाण मर्याद करै तिस श्रावककै भोगोपभोग नाम गुणवूत होय है. भावार्थ- भोग तौ भोजन तांबूल आदि एकबार भोगमैं प्रावै सो कहिए. बहुरि उपभोग वस्त्र गहणा आदि फेरि २ भोगमैं आवै सो कहिये. तिनिका परिमाण यमरूप भी होय है पर नित्य नियमरूप भी होय है सो यथाशक्ति अपनी सामग्रीकू विचारि यमरूप करि ले तथा नियमरूप भी कहे हैं तिनित नित्य
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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