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________________ (१९०) ना बहुरि लोहका तथा लोह आदिके आयुधनिका व्योपार करना, देना लेना बहुरि लाख खला आदि शब्दतै विष वस्तु प्रादिका देना लेना विणज करना यह चौथा हिंसा. दान नामा अनर्थदंड है. भावार्थ-हिंसक जीवनिका पालन तौ निःप्रयोजन अर पाप प्रसिद्ध ही है. बहुरि बहुत हिंसाके कारण शस्त्र लोह लाख आदिका विणज करणा देना लेना भी करनेमें फल अल्प है. पाप बहुत है । तातें अनर्थदंड ही है या प्रवर्ते व्रतभंग होय है, छोडे व्रतकी रक्षा है ॥ ३४७ ॥ श्रागें दुःश्रुतिनामा पांचमा अनर्थदण्डकू कहै हैं,जं सवणं सत्थाणं भंडणवसियरणकामसत्थाणं । परदोसाणं च तहा अणत्थदंडो हवे चरमो ॥३४८ भाषार्थ-जो सर्वथा एकान्ती तिनिके भाषे शास्त्र शत्रसारिखे दीखें ऐसे कुशास्त्र तथा भांडक्रिया हास्य कौतुइलके कपनके शास्त्र तथा वशीकरण मंत्रमयोगके शास्त्र तथा स्त्रीनिके चेष्टाके वर्णनरूप कामशास्त्र तिनिका सुनना तथा उपलक्षणते वांचना सीखना सुनावना भी जानना. बहुरि परके दोषनिकी कथा करना सुनना यह दुःश्रुतिश्रवण नाम अन्तका पांचवा अनर्थदंड है. भावार्थ-खोटे शास्त्र सुनने वाचने सुनावने रचनेमैं किछू प्रयोजन सिद्धि नाही. केवल पाप ही होय है अर आजीविका निमित्त भी इनिका व्योहार करना श्रावककं योग्य नाही. व्योपार आदिकी योग्य
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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