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________________ ( १६९ ) उपशम भावनिकू भावे है अनन्तानुबन्धीसम्बन्धी तीव्र रागद्वेष परिणामके प्रभावतें उपशम भावनिकी भावना निरन्तर राखे है बहुरि अपने श्रात्माकूं तृण समान हीण माने है जातें अपना स्वरूप सौ अनन्त ज्ञानादिरूप है, सो जेवे तिसकी प्राप्ति न होय तेतै आपकं तृणबराबरी माने है. का हू विषै गर्व नाहीं करे है || ३१३ ॥ विसयासतो विसया सव्वारंभेसु वट्टमाणो वि । मोहविलासो एसो इदि सव्वं मण्णदे हेयं ॥ ३१४ ॥ भाषार्थ - अविरत सम्यग्दृष्टी यद्यपि इन्द्रिय विषयनिविषयासक्त है बहुरि त्रस यावर जीबके घात जामें होंय ऐसे सर्व प्रारम्भविषै वर्तमान है. अप्रत्याख्यानावरण आदि कषायनिके तीव्र उदयनित बिरक्त न हुवा है तौऊ ऐसा जा है कि यह मोहकर्मका उदयका विकास है. मेरे स्वभावमें नहीं है उपाधि है रोगवत है त्यजने योग्य है, वर्चमान कषायनिकी पीडा न सही जाय है तातें असमर्थ हूवा विषयनिका सेवना तथा बहु प्रारंभ में प्रबचना हो है ऐसा माने है ॥ ३१४ ॥ उत्तमगुणगहणरओ उत्तमसाहूण विणयसंजुत्तो । साहम्मियअणुराई सो सद्दिट्ठी हवे परमो ॥ ३१५ ॥ भाषार्थ - बहुरि कैसा है सम्यग्दृष्टी उत्तम गुण जे सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तप श्रादिक तिनिविषै तौ अनुरागी
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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