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________________ प्रमाण नयकरि सात भंगकरि साध्या हुवा सम्यक्त्वका कार्य है. तातें याकू भी सम्यक्त्व ही कहिये. ऐसें जानना. जिनमतकी कथनी अनेक प्रकार है सो अनेकान्तरूप समझना. अर याका फल अज्ञानका नाश होकर उपादेयकी बुद्धि अर वीतरागताकी प्राप्ति है. सो इस कथनिका मर्म पावना बढे भाग्य” होय है. इस पञ्चम कालमें अबार इस कथनीका गुरुका निमित्त सुलभ नाहीं है तातै शास्त्र समझनेका निरन्तर उद्यम राखि समझना योग्य है. जाते याके श्राश्रय मुख्यपण सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति है. यद्यपि जिनेन्द्रकी प्रतिमाका दर्शन तथा प्रभावना अंगका देखना इत्यादि सम्यक्त्वकी प्राप्ति• कारण है तथापि शास्त्रका श्रवण करना, पढना, भावना करना, धारणा, हेतुयुक्तिकरि स्वमत परमतका भेद जानि नयविवक्षाकू समझना वस्तुका अनेकान्तस्वरूप निश्चय करना मुख्य कारण हैं. तातें भव्य जीवनि• इसका उपाय निरन्तर राखणा योग्य है। श्रागें कहै हैं जो सम्यग्दृष्टी भये अनन्तानुबंधी कषाय का प्रभाव होय है ताके परिणाम कैसे होय हैं,जो ण य कुव्वदि गव्वं पुत्तकलचाइसव्वअत्थेसु। उवसमभावे भावदि अप्पाणं मुणदि तिणमित्रं ३१३ भाषार्थ-जो सम्यग्दृष्टी होय है सो पुत्र कलत्र आदि सर्व परद्रव्य तथा परद्रव्यनिके भावनिविषै गर्व नाहीं करें हैं. परद्रव्यतै आपकै बढापणा मानै तौ सम्यक्त्व काहेका. बहुरि
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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