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________________ (१५७) अधर्म द्रव्य है. असंख्यात कालाणु द्रव्य है. लोकके परै अनन्तप्रदेशी आकाश द्रव्य अलोक है. तिनि सर्व द्रव्यनिके अतीत काल अनन्त समयरूप आगामी काल तिनितें अनन्तगुणा समर रूप तिस कालके समयसमयवर्ती एक द्रव्य के अनन्त अनन्त पर्याय हैं. तिनि सर्व द्रव्यपर्यायनिकू युगपत् एक समयविषै प्रत्यक्ष स्पष्ट न्यारे न्यारे जैसे हैं तैसें जाने ऐसा जाके ज्ञान है सो सर्वज्ञ है. सो ही देव है अन्यकू देव कहिये सो कहने मात्र है। इहां कहनेका तात्पर्य ऐसा जो धर्मका स्वरूप कहिथेगा सो धर्मका स्वरूप यथार्थ इन्द्रियगोचर नाही अतीन्द्रिय है. जाका फल स्वर्ग मोक्ष है, सो भी अतीन्द्रिय है. छद्मस्थकै इन्द्रिय ज्ञान है. परोक्ष है सो याके गोचर नाहीं सो जो सर्व पदार्थनिकू प्रत्यक्ष देखै सो धर्मका स्वरूप भी प्रत्यक्ष देखै सो धर्मका स्वरूप सर्वज्ञके वचनहीते प्रमाण है. अन्य छनस्थका ह्या प्रमाण नाही. सो सर्वज्ञके वचनकी परंपरानै छद्मस्थ कहै सो प्रमाण है तातें धर्मका स्वरूप कहनेकू आदिवि सर्वज्ञका स्थापन कीया ॥३०२॥ भागें ज सर्वज्ञकुं न मान हैं तिनि कहै हैं,जदिण हवदि सव्वण्हू ता कोजाणदिआदिदियं अत्थं इंदियणाणं ण, मुणदि थूलं पि असेस पन्जायं ३०३ - भाषार्थ-हे सर्वज्ञके अभाववादी! जो सर्वज्ञ न होय तौ मीन्द्रियपदार्थ इन्द्रियगोचर नाहीं ऐसे पदार्थकू कौन जानै ? इन्द्रियज्ञानतौ स्थूलपदार्थ इन्द्रियनित सम्बन्धरूप वर्तमान.
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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