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________________ ( १३४ ) जो ज्ञान हैं सो तिनिकी प्रवृत्ति युगपत् नाहीं एककाल एक ही ज्ञानसं उपयुक्त होय है. जब यह जीव घटकूं जानें विस काल पटकूं नाहीं जानें, ऐसैं क्रमरूप ज्ञान है ॥ २५९ ॥ इन्द्रियमन्धी ज्ञानकी क्रम प्रवृति कही तहां आशंका उपजै है जो इन्द्रियनिका ज्ञान एककाल कि नाहीं ? ताकी आशंका दूर करनेकौं कहै हैं, एक्के काले एवं गाणं जीवस्स होदि उवजुत्तं । गाणाणाणाणि पुणो ला द्वे सहावेण वुच्चंति ॥ २६० ॥ भावार्थ-जीवकै एक क में एक ही ज्ञान उपयुक्त कहिये उपयोगकी प्रवृत्ति हो " है . बहुरि लब्धिस्वभावकरि एक काल नाना ज्ञान कहे हैं. भावार्थ-भाव इन्द्रिय दोय प्रकारकी कही है. लfor उपयोगरूप. तहां ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम आत्माक जानने की शक्ति होय सो लब्धि कहिये सो तो पांच इन्द्रिय अग् मन द्वारा जानने की शक्ति एक काळही तिष्ठे हैं. बहुरि निकी व्यक्तिरूप उपयोगकी प्र वृचि है सो ज्ञेय उपयुक्त होय है तब एक काल एकहीं होय है ऐसी ही क्षयोपशमका योग्यता है || २६० ॥ आगें वस्तु अनेकात्मा है तौऊ अपेक्षा एकात्म - पणा भी है ऐसे दिखावे हैं, 1 जं वत्थु अणेयंतं एयंतं तं पि होदि सविपक्खं । सुयणाणण णयेहिं य णिरविक्खं दीसए णेव ॥२६२॥ I
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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